वो अविसमरणीय यात्रा ( संस्मरण)=डा० भारती वर्मा बौड़ाई  

 

वो अविसमरणीय यात्रा ( संस्मरण)=डा० भारती वर्मा बौड़ाई  

यह उन दिनों की बात है जब मैं और मेरे पति अरुणाचल प्रदेश के शिक्षा विभाग में जूनियर टीचर ( टी० जी० टी० के समकक्ष ) बन कर कार्य रत थे। वर्ष में दो बार तो तीन दिन की यात्रा कर हमारा देहरादून आना हुआ ही करता था। तब हम सिमोंग गाँव के माध्यमिक विद्यालय में अध्यापन कर रहे थे ग्रीष्मावकाश आरंभ हो गया था और हमें देहरादून आना था। सिमोंग इंगकियोंग से पंद्रह किलोमीटर है। हम सिमोंग से चल कर इंगकियोंग पहुँचे और रात को होटल में ही रुके क्योंकि बस अगले दिन सुबह पाँच बजे मिलनी थी। सुबह बस से पासीघाट के लिए निकले। वहाँ बोलेंग से थोड़ा आगे चल कर बस के ब्रेक फेल हो गए और बस पीछे की तरफ चलने लगी। उस समय मेरी सवा दो वर्ष की बेटी साथ में थी। मेरे पति ने सावधान किया कि देखो अब बस गिर या उलट सकती है, तो स्वयं खिड़की की ओर बैठ कर हमें दूसरी तरफ बैठाया और बीच में आगे की सीट पर कस कर अपना हाथ रख दिया, ताकि मैं और बेटी गिरें भी तो हाथ के बचाव से चोट कम लगे। चालक और कंडक्टर अपनी पूरी बुद्धि लगा रहे थे कि बस किसी तरह गिरने-उलटने से बचे और रुक जाए। इस बीच कई पुरुष यात्री कूद कर बस से उतर गए परिवार वाले दो ही थे… हम और एक पंडित-पंडितानी। बस गिरी… अब गिरी और अब गिरी के रौले में पंडित जी भी पंडितानी को बस में ही छोड़ बस से कूद गए। मेरे पति जोर से चिल्लाए… बहन जी! डरना नहीं, कुछ नहीं होगा, पर वह जोर-जोर से रोए जा रही थी। किसी तरह कंडक्टर अपने जुगाड़ी और कुछ सहयात्रियों की मदद से बस के पिछले पहियों के नीचे पत्थर लगाने में सफल हुए और एक तगड़े झटके के साथ बस रुक गई। गिरने-उलटने की संभावना समाप्त हो गई। बस से लोग नीचे उतरे, कूदे लोग सब जुटे और एक-दूसरे के गले लग सुरक्षित बच पाने की खुशी में भी रोने लगे। तब पंडित जी भी इधर-उधर से सिर नीचा किए अपनी पंडितानी से पूछने लगे…. तू ठीक है न? पंडितानी के क्रोध का बाँध एकदम से टूट गया। उसको धक्का देते हुए, गालियाँ देते हुए बोली…. अब आया है हाल पूछने? तब अपनी जान बचा कर मुझे बस में मरने के लिए छोड़ कर भाग गया था भगोड़ा कहीं का! वो भाई को देख!जो अपनी पत्नी-बच्ची के साथ वहीं बस में डटा रहा और एक तू है! भाग यहाँ से।पंडित सिर नीचा किए गालियाँ खा रहे थे क्योंकि उन्होंने गलती तो बहुत भारी की थी। सब सड़क के किनारे एकत्र होकर बैठ गए। हाथ जोड़ कर इस बड़ी दुर्घटना से बचाने के लिए ईश्वर का धन्यवाद किया। पंडित-पंडितानी की सुलह करवाई।जिसके पास जो था मिल-बाँट कर खाया।दूसरी बस आई। सब उसमें बैठ कर पासीघाट पहुँचे। पंडित जी की घटना देख कर पति ने मुस्कुराते हुए कहा था देख लो! मैं तो छोड़ कर नहीं भागा न! यहीं मैं औरों से अलग हूँ, याद रखना। वहाँ से लखीमपुर, लखीमपुर से गौहाटी, गौहाटी से दिल्ली और दिल्ली से देहरादून जब घर पहुँचे और सबको यह घटना बताई तो मेरी माँ की त्वरित प्रतिक्रिया यह थी कि बहुत हुआ वहाँ रहना। अब वापस देहरादून आओ , यहीं नौकरी ढूँढो बस। तब इतनी लम्बी यात्राएँ कर लेते थे, कई दुर्घटनाएँ भी झेली। अब जब ये सब याद करते हैं तो एक सिहरन सी तो दौड़ ही जाती है। आज भी कभी किसी बात पर नाराजगी होती है तो मेरे पति उसी घटना का स्मरण कराते हुए कहते हैं कि मुझे लम्बी-चौड़ी बातें करनी नहीं आती, मैं तो करने में विश्वास करता हूँ जैसे उस दिन बस में साथ डटा रहा था। अपने प्रेम की पराकाष्ठा तो मैंने तभी दिखा दी थी। तुम इसे समझ पाई या नहीं तुम जानो । सच में उस यही सोचा था कि यदि मरे भी तो तीनों साथ ही जाएँगे। यात्राओं का सिलसिला कभी थमा नहीं हमारा। अरुणाचल प्रदेश से देहरादून की हर यात्रा अपने-आप में कोई न कोई इतिहास समेटे हुए है। उन पर कभी फिर विस्तार से। उस बार की यात्रा में तो स्वार्थ और प्रेम की पराकाष्ठा का अधम और सर्वोत्तम रूप…जो देखने को मिला था वह स्मृति की अतल गहराइयों में आज भी बसा हुआ है और आंदोलित करता रहता है। ——————————— डा० भारती वर्मा बौड़ाई

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