जले जब नेह की बाती (विधा-गीत) =अर्चना लाल

 

जले जब नेह की बाती (विधा-गीत) =अर्चना लाल

 

जले जब नेह की बाती,

लिपट मैं फिर वहाँ जाती।

अगन हिय पाश है प्रियवर,

मगर मैं रास करती हूँ।

जली हूँ दीप- बाति संग ,

मधुर अहसास भरती हूँ ।

विवश होते अधर मेरे ,

मुखर है प्रीत जज्बाती ।

जले जब नेह की बाती ,

लिपट मैं फिर वहाँ जाती।।

हृदय की वेदना प्रियवर,

कहो कब तक सहूँगी मैं।

पंख मेरे सुकोमल है ,

रीति सुंदर गहूँगी मैं ।

खड़ी हूँ मौन मुखरित सी ,

मुदित मैं पंख फड़फड़ाती।

जले जब नेह की बाती,

लिपट मैं फिर वहाँ जाती।।

बढे जब घोर अंधियारा,

गहन फिर रात है काली,

भटकती मैं विरहनी सी ,

दिखे ना भोर की लाली।

अगर दीपक जलाये तो ,

भँवर बनकर गुनगुनाती।

जले जब नेह की बाती ,

लिपट मैं फिर वहाँ जाती ।।

……………अर्चना लाल,

जमशेदपुर झारखण्ड

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