सहमा-सहमा साँच - डॉ. सत्यवान सौरभ
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आखिर मंज़िल से मिले, कठिन साँच की राह।
ज्यादा पल टिकती नहीं, झूठ गढ़ी अफवाह॥
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मानवता मन से गई, बढ़ी घृणा की आँच।
वक्त झूठ का चल रहा, सहमा-सहमा साँच॥
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बुनकर झूठ फ़रेब के, भला बिछे हो जाल।
सच्ची जिसकी साधना, होय न बांका बाल॥
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सच्चे पावन प्यार से, महके मन के खेत।
दगा झूठ अभिमान से, हो जाते सब रेत॥
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कैसी ये सरकार है, कैसा है कानून।
करता नित ही झूठ है, सच्चाई का खून॥
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आखिर मंज़िल से मिले, कठिन साँच की राह।
ज्यादा पल टिकती नहीं, झूठ गढ़ी अफवाह॥
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सच कहते ही हो रहा, आना-जाना बंद।
तभी लोग हैं कर रहे, ज़्यादा झूठ पसंद॥
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कैसी ये सरकार है, कैसे हैं कानून।
करता नित ही झूठ है, सच्चाई का खून॥
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सिसक रही हैं चिट्ठियाँ, छुप-छुपकर साहेब।
जब से चैटिंग ने भरा, मन में झूठ फ़रेब॥
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सच से आंखें मूँद ली, करता झूठ बखान।
गिने गैर की खामियाँ, दिया न ख़ुद पर ध्यान॥
-डॉ. सत्यवान सौरभ, उब्बा भवन,
आर्यनगर, हिसार (हरियाणा)-127045