मोक्ष दायिनी गंगा - जसवीर सिंह हलधर

मैं सिंधु मिलन की चाह लिए ।
सागर से प्रेम अथाह लिए ।।
अम्बुधि की ओर चली भागी ।
आधी सोयी आधी जागी ।।1
युग युग से मैं बहती आयी ।
इतनी पीड़ा सहती आयी ।।
धरती की प्यास बुझाने को ।
मानव संत्रास मिटाने को ।।2
वन क्षेत्र दिए मैदान दिए ।
औषधि के विविध विधान दिए ।।
श्रृंगार फूलता है मुझमें ।
उद्धार झूलता है मुझमें ।।3
तूफान नाँचते लहरों से ।
इंसान कांपते लहरों से ।।
दिव्यता पनपती है मुझसे ।
सभ्यता खनकती है मुझसे ।।4
ऋषियों के केश बुने मैंने ।
गौतम संदेश सुने मैंने ।।
कितनों की हस्ति बही मुझमें ।
कितनों की अस्थि बही मुझमें ।।5
मुझसे धरती पर हरियाली ।
मुझसे भारत में खुशहाली ।।
श्रृंगार प्रवाहित है मुझमें ।
उद्धार समाहित है मुझमें ।।6
व्यापार फला है घाटों पर ।
संघार पला है घाटों पर ।।
मुझ पर जो बांध बनाये हैं ।
खुद अपना नाश सजाये हैं ।।7
अनुरोध सुनो जन गण नायक ।
जल नहीं आचमन के लायक ।।
दूषित मेरी जलधार हुई ।
मैं कलयुग में बीमार हुई ।।8
अनुबंध छोड़ दूंगी जिसदिन ।
सब बांध तोड़ दूंगी जिसदिन ।।
धरती पानी पानी होगी ।
जलचर की मनमानी होगी ।।9
अपवित्र हुई मेरी काया ।
सागर ने मुझको ठुकराया ।।
खाड़ी में ठोकर खाती हूँ ।
अपना दुखदर्द सुनाती हूँ ।।10
मानव क्यों हुआ आज नंगा ।
यह प्रश्न पूछती है गंगा ।।
खुद को प्रबुद्ध करो बच्चो ।
जल मेरा शुद्ध करो बच्चो ।।11
सुन "हलधर" अब मैं जाती हूँ ।
अपना संकल्प सुनाती हूँ ।।
यदि मैं दूषित मर जाऊंगी ।
धरती बंजर कर जाऊंगी ।।12
- जसवीर सिंह हलधर, देहरादून