अवरुद्ध कंठ पीड़ा - पुष्पा प्रियदर्शिनी

 
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हे भावों  की ललिता कोकिला 
हुई विलीन धरा से क्यों ?
अद्भुत, झंकृत स्वर नित झरते 
जन-जन के मन विप्लव भरते
तुम अंतहीन पथ चुनकर भी
हो गई  मौन धरती पर क्यों?  
रचना के कुमुद तड़ागों में 
मधुरिम सी ध्वनि के रागो में 
गंभीर धीर चट्टान सरिस 
लेखनी मौन धारण की क्यों?  
सबकी आंखों से धार चली 
टहनी पर सूखी खिली कली 
अब सांझ हुई व्याकुल विह्वल 
तुम चिरनिद्रा में सोई क्यों ?
अनसुलझे प्रश्न हजार लिए
गीतों से मृदु बौछार किये  
बिखरी सांसें जब उखड़ रहीं 
तुम उसको बांध न पाई क्यों ?
संकलन अधूरा छोड़ चली  
साहित्य जगत की आहुति में
बंधन को तोड़ निबंधों में 
तुम मान पत्र को छोड़ी क्यों ?
मानस सरवर की नलिन पुष्प 
शुभ कीर्ति पताका अमर रहे
अनुराग वेदना द्वंद हृदय 
साहस अदम्य खण्डित है क्यों ?
कर जन मन विमल विमोहित तुम 
कैसे विचलित कर आज चली 
शालीन धैर्य की सप्त सिंधु 
अवरुद्ध कंठ पीड़ा में क्यों ?
- पुष्पा प्रियदर्शिनी, जमशेदपुर  

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