दोहे - डॉ. सत्यवान सौरभ

 
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वक्त बदलता दे रहा, कैसे- कैसे घाव।
माली बाग़ उजाड़ते, मांझी खोये नाव।।

घर-घर में रावण हुए, चौराहे पर कंस।
बहू-बेटियां झेलती, नित शैतानी दंश।।

वही खड़ी है द्रौपदी, और बढ़ी है पीर।
दरबारी सब मूक है, कौन बचाये चीर।।

गूंगे थे, अंधे बने, सुनती नहीं पुकार।
धृतराष्ट्रों के सामने, गई व्यवस्था हार।।

अभिजातों के हो जहाँ, लिखे सभी अध्याय।
बोलो सौऱभ है कहाँ, वह सामाजिक न्याय।।

पीड़ित पीड़ा में रहे, अपराधी हो माफ़।
घिसती टाँगे न्याय बिन, कहाँ मिले इन्साफ।।

न्यायालय में पग घिसे, खिसके तिथियां वार।
केस न्याय का यूं चले, ज्यों लकवे की मार।।

फीके-फीके हो गए, जंगल के सब खेल।
हरियाली को रौंदती, गुजरी जब से रेल।।
✍ डॉ. सत्यवान सौरभ, 333, परी वाटिका, 
कौशल्या भवन, बड़वा (सिवानी) भिवानी, हरियाणा
 

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