पंछी डूबे दर्द में - डॉ सत्यवान सौरभ
बदल रहे हर रोज़ ही, हैं मौसम के रूप।
सर्दी के मौसम हुई, गर्मी जैसी धूप॥
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सूनी बगिया देखकर, 'तितली है खामोश'।
जुगनूं की बारात से, गायब है अब जोश॥
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आती है अब है कहाँ, कोयल की आवाज़।
बूढा पीपल सूखकर, ठूंठ खड़ा है आज॥
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जब से की बाज़ार ने, हरियाली से प्रीत।
पंछी डूबे दर्द में, फूटे ग़म के गीत॥
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फीके-फीके हो गए, जंगल के सब खेल।
हरियाली को रौंदती, गुजरी जब से रेल॥
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नहीं रहे मुंडेर पर, तोते -कौवे -मोर।
लिए मशीनी शोर है, होती अब तो भोर॥
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अमृत चाह में कर रहे, हम कैसे उत्थान।
जहर हवा में घोलते, हुई हवा तूफ़ान॥
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बेचारे पंछी यहाँ, खेलें कैसे खेल।
खड़े शिकारी पास में, ताने हुए गुलेल॥
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सूना-सूना लग रहा, बिन पेड़ों के गाँव।
पंछी उड़े प्रदेश को, बाँधे अपने पाँव॥
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रोज प्रदूषण अब हरे, धरती का परिधान।
मौन खड़े सब देखते, मुँह ढाँके हैरान॥
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हरे पेड़ सब कट चले, पड़ता रोज़ अकाल।
हरियाली का गाँव में, रखता कौन ख़्याल॥
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शहरी होती जिंदगी, बदल रहा है गाँव।
धरती बंजर हो गई, टिके मशीनी पाँव॥
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वाहन दिन भर दिन बढ़े, ख़ूब मचाये शोर।
हवा विषैली हो गई, धुआं चारों ओर॥
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बिन हरियाली बढ़ रहा, अब धरती का ताप।
जीव-जगत नित भोगता, कुदरत के संताप॥
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जीना दूभर है हुआ, फैले लाखों रोग।
जब से हमने है किया, हरियाली का भोग॥
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सच्चा मंदिर है वही, दिव्या वही प्रसाद।
बँटते पौधे हों जहाँ, सँग थोड़ी हो खाद॥
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पेड़ जहाँ नमाज हो, दरख़्त जहाँ अजान।
दरख्त से ही पीर सब, दरख़्त से इंसान॥
- डॉo सत्यवान सौरभ,,333, परी वाटिका, कौशल्या भवन, बड़वा (सिवानी) भिवानी, हरियाणा – 127045, मोबाइल :9466526148, 01255281381