ग़ज़ल (चित्राधारित) - विनोद निराश

झुका के नज़रे एहतराम कर गई,
हया से ही सही सलाम कर गई।
कब से उदास थी महफ़िले-दिल,
वो नाज़नीन हंसीं शाम कर गई।
इक नज़र की तलब क्या बतायें,
बेसब्री मेरी भी सरे-आम कर गई।
सुर्ख पैरहन और वो लचकती कमर,
दिल का मेरे काम तमाम कर गई।
लब कंवल वो कानो की बालियाँ,
हुस्ने-ताब दिल का काम कर गई।
खुले गेसू मरमरी बाहें वो सादगी,
रातों को जगाना आम कर गई।
रूखे-रोशन की मिसाल अब क्या दे,
इश्क़ वालों में वो भी नाम कर गई।
निराश आँखों में रात की तिश्नगी,
इंतज़ार में दिन तमाम कर गई।
- विनोद निराश , देहरादून
एहतराम - सूचनार्थ: औपचारिक / पूर्ण आदर-सत्कार के साथ
हया - लज़्ज़ा / शर्म
महफ़िले-दिल - ह्रदय गोष्ठी / दिल की वज्म
नाज़नीन - खूबसूरत / अति सुन्दर
हसीं - मनभावन / सुन्दर
तलब - प्राप्त करने की इच्छा / तलाश
हुस्ने-ताब - दमकता चेहरा / सौन्दर्य आभा / रूप की गर्मी / बेहद खूबसूरत
सरे-आम - सार्वजनिक / खुलेआम / सब के सामने
सुर्ख - लाल
पैरहन - लिबास / पोशाक
गेसू - बाल / जुल्फे
मरमरी - अत्यधिक सुंदर / संगमरमर जैसा
रूखे-रोशन - उज्जवल चेहरा/ सुंदर, आकर्षक चेहरा
तिश्नगी – प्यास