ग़ज़ल - रीता गुलाटी

 
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खुशी से थिरकने को जी चाहता है।
मुहब्बत मे बहने को जी चाहता है।

बसन्ती हवा अब सताती हमें भी,
यूं ही  बस मचलने को जी चाहता है।

बिछी आज चादर खिले फूल पीले,
बगिया मे ठहरने को जी चाहता है।

छुड़ा कर चले तुम कहाँ हाथ अपना,
आँखो मे ,बहकने को जी चाहता है।

ऩजारे लगे हैं बड़े खूबसूरत,
हमे भी च़हकने को जी चाहता है।

किया यार तूने ये कैसा इशारा,
कि फिर रूठ जाने का जी चाहता है।

सजा आज फूलो से आँगन हमारा।
यहां पर ठहरने का जी चाहता है।.
- रीता गुलाटी ऋतंभरा, चंडीगढ़
 

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