ग़ज़ल - विनोद निराश

 
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तन्हा जिंदगी इक खण्डर है,
गमे-जुदाई हमारा मुकद्दर है। 

आरज़ू-ए-जानेजां कुछ नहीं, 
फकत फरेब का समंदर है। 

ज़ुस्तज़ू थी चांदनी की मगर, 
हाले-नसीब स्याह मुकद्दर है। 

हसरते-महल जलजले सरीखी,  
ख्वाबे-ताबीर जिसकी पत्थर है। 

यूं तो है हर सू आलमे-मसर्रत,  
मगर ख़ुशी कहाँ मयस्सर है। 

पढता रहा रोज़ चेहरा जिसका,  
वही शख्स निराश मेरे अंदर है। 
- विनोद निराश, देहरादून 
गमे-जुदाई - विरह का दुःख / एकाकीपन का गम 
आरज़ू-ए-जानेजां - प्रेयसी की इच्छा 
फकत - केवल  
फरेब - धोखा 
ज़ुस्तज़ू - तलाश 
हाले-नसीब - भाग्य स्थिति
स्याह - काला / अँधेरा 
हसरते-महल - महल की अभिलाषा 
जलजले - भूचाल / भूकंप / क्रोधी,/ बिगड़ैल 
ख्वाबे-ताबीर - स्वप्न फल 
आलमे-मसर्रत - ख़ुशी का संसार
हर सू - हर तरफ / चारो तरफ 
मयस्सर - मिलना / प्राप्त / उपलब्ध 
शख्स - व्यक्ति / आदमी
 

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