कविता - रेखा मित्तल
घर लौटना
घर से निकले हुए लोग
कभी घर वापस नहीं लौटते
सपनों की उड़ान इतनी बड़ी हो जाती है
घर लौटने का वक्त ही नहीं मिलता
कभी लौटते हैं अपने आशियाने में
तो बस प्रवासी मेहमानों की तरह
अगली बार जल्दी आने का वादा लिए
फिर लौट जाते हैं उन राहों पर
जो घरों तक नहीं आती
दहलीज पर बैठी माँ निहारती है
खाली सड़क,जो घर तक आती हैं
दादी बताया करती थी
पापा भी निकले थे कभी
अपने ख़्वाबों को पूरा करने के लिए
पर आज तक कभी लौट नहीं पाए
यही जीवन का शाश्वत सत्य है
सुकून से जिंदगी जीने की तलाश में
जिंदगी का सुकून ही खो देते हैं
बेहतर जीवन के लिए गांव छोड़
शहरों में आते हैं
लौटते हैं कभी फिर उन गांवों में
जीवन में खुशी की तलाशने
पर यह लौटना घर वापसी नहीं है
घर से निकले हुए लोग
कभी घर वापस नहीं लौटते
- रेखा मित्तल, चण्डीगढ़