कविता - रेखा मित्तल

 
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घरौंदे नहीं बनते केवल
ईंट,गारा और सीमेंट से
महसूस करो तो मिलेंगे
अधूरे ख्वाब, ख्वाहिशें
जिंदगी जीने की कश्मकश
कुछ समझौते,जो किए गए
जाने अनजाने में,
हर घरौंदे की दीवारें
साक्षी हैं उन लंबी वार्तों की
जो रात भर चली
पर अनसुलझी ही रह गई
घरौंदे नहीं बनते केवल
ईंट, गारा और सीमेंट से...

घरौंदे को बचाने के लिए
ओढ ली गई खामोशी
खिलखिलाती हँसी के पीछे
अंदर समाता गया सूनापन
जो कर देता है जर्जर
मन को, तन को, धीरे-धीरे
अनेकों ख्वाहिशें होती हैं दफन
घर की मजबूत नींव के तले
कब अल्हड़ जवानी हो जाती
तब्दील वानप्रस्थ में
कुछ पता ही नहीं चलता
घरौंदे नहीं बनते केवल
ईंट ,गारा और सीमेंट से...
- रेखा मित्तल, चण्डीगढ़  
 

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