महाकुम्भ - भूपेन्द्र राघव

श्रेष्ठ सनातन, धर्म पुरातन, उदाहरण परित्राण का...
महाकुंभ यह एक यज्ञ है, सर्व जगत कल्याण का...
जय श्रेष्ठ सनातन की... जय धर्म पुरातन की...
जय पावन संगम की... जय संत समागम की...
दुर्वासा से शापित, सुर-बल क्षीण हुआ सारा...
असुर-राज बलि ने इंद्रासन आकर ललकारा...
त्राहि-त्राहि कर-जोड सुरासुर हरि की शरण गए...
हे नारायण ! कष्ट मिटाओ, मिलकर बोल कहे...
शेषासन पर पद्मनाभ ने किया तनिक चिंतन...
हरि बोले सुर-असुर करें यदि, सागर का मंथन...
शेष यही है एक उपाय, देवों के हित त्राण का...
श्रेष्ठ ..... ........ .…..... ....... ....... ...….... ............
सागर मंथन हेतु बने प्रभु कच्छप अवतारी...
सहज पृष्ठ पर थाम लिया तब मन्दराचल भारी...
नागराज - वासुकी - रेजु को खींचें देवासुर...
देव-दनुज दोनों दल दिखते, अमृत को आतुर...
जगत चराचर सागर- मंथन- स्वर से थर्राया...
दृष्टि सभी की लगी इसी पर, अमृत अब पाया...
किन्तु हलाहल आया पहले, ग्राही सबके प्राण का...
श्रेष्ठ ..... ........ .…..... ....... ....... ...….... ............
विकल चराचर, कालकूट से, कौन संभालेगा..
कौन हलाहल का हल देकर, सृष्टि बचा लेगा..
सुर असुरों की विनती पर शिव ने विषपान किया...
ऋषि मुनि सुरासुरों ने मिलकर भव गुणगान किया...
दसों दिशाएं गूंज उठीं, जयघोष हुआ हर-हर...
महादेव तो महादेव हैं, बचा लिया आकर...
भूतनाथ का अक्षर-अक्षर प्रत्याभूत पुराण का...
श्रेष्ठ ..... ........ .…..... ....... ....... ...….... ............
श्री रंभा विष और वारुणी शशि मणि धेनु सुबाज़...
एक एक कर रत्न निकलते, शंख,धनुष, गजराज...
रत्नाकर के रत्न यत्न कर, बांट लिए द्वय दल...
उठी उदधि में तभी अनोखी अति विशिष्ट हलचल...
अमिय-कलश ले हाथों में प्रभु, धनवंतरि आये...
अमृत-घट को देख सुरासुर मन में हर्षाये...
दोनों टूट पड़े पाने को, पूर्ण-अमिय-परिमाण का...
श्रेष्ठ ..... ........ .…..... ....... ....... ...….... ............
सुर असुरों में अमिय-कलश पर युद्ध छिड़ा भारी...
तभी प्रकट हो गए श्री हरि बन सुंदर नारी...
कोटि उर्वशी, तिलोत्तमा, शचि, मेनका,प्रमलोचा...
कोटिक रंभा, रति बलिहारी, रूप था अनसोचा...
मनहर यौवन इंद्रजाल सा, आज पड़ा भारी...
मंद- मंद मुस्काते देखें , लीला त्रिपुरारी...
कहा मोहिनी तजें प्रयोजन, बाण कृपाण विषाण का...
श्रेष्ठ ..... ........ .…..... ....... ....... ...….... ............
अपलक दृष्टि मोहिनी पर थी सब सुध बिसराई...
कहा, मोहिनी अमिय-पान मैं करवाने आई...
देव दनुज दल बैठ गए तब सम्मुख सब आकर...
चली मोहिनी पान कराने, अमृत की गागर...
देव पंक्ति में अमृत बांटा हरि ने जग के हित...
सूर्य-चंद्र ने छल से बैठा किया असुर इंगित...
राहु-केतु उस दिन से प्यासा सूर्य चंद्र के प्राण का
श्रेष्ठ ..... ........ .…..... ....... ....... ...….... ............
उसी कुम्भ से अमृत बूंदें चार छलक आईं...
हरिद्वार प्रयाग उज्जयिनी नासिक भू पायीं...
हुए जागृत भाग उसी क्षण, धन्य मही-जम्बू...
महातीर्थ हो गए भाग यह, चार स्वतः स्वयंभू...
गंगा, यमुना, वेदवती का पावन संगम है...
पाप मुक्त हो जाता जीवन, दृश्य विहंगम है...
अवगाहन से खुल जाता है, द्वार मोक्ष, निर्वाण का...
श्रेष्ठ ..... ........ .…..... ....... ....... ...….... ............
आया धर्म-सनातन का यह, महापर्व जय हो...
इसी सनातन में हम जन्मे, हमें गर्व जय हो...
कोटि कोटि यज्ञों का फल है, पावन माँटी में...
आओ मिल सहभाग करें, संस्कृति परिपाटी में...
पुनः कमा लें, बंधु बांधवो, अवसर यही प्रयाण का..
श्रेष्ठ ..... ........ .…..... ....... ....... ...….... ............
- भूपेन्द्र राघव (गाजियाबाद), उत्तर प्रदेश