ग़ज़ल = विनोद निराश

रूखे-ए-रौशन महताब लगता है ,
मासूम सा चेहरा गुलाब लगता है।
रिश्ता नहीं कोई उससे फिर भी,
जाने क्यूँ वो अहबाब लगता है।
है हंसीं से भी हंसीं हुस्न उसका ,
जो इश्क़ का रूआब लगता है।
गई रुत की बात क्यूँ करते हो,
हर रुत में वो शादाब लगता है।
अब कारीगरी की मिसाल क्या दे,
संगे-तराश का जवाब लगता है।
बेशक देखता हो वो तंगनज़र से,
पर तीरे-नज़र लाजवाब लगता है।
रात का इंतज़ार भला कौन करे,
जागती आँखों का ख्वाब लगता है।
है गाफिल हमसे वो मगर निराश,
समान-ए-कज़ा जनाब लगता है।
विनोद निराश , देहरादून
रूखे-ए-रौशन = खूबसूरत चेहरा
महताब = चाँद
अहबाब = दोस्त / सखा / अपना
शादाब = तरो-ताज़ा / हरा भरा
संगे-तराश = मूर्तिकार /पत्थर को तराशने वाला
तीरे-नज़र = तिरछी नज़र / नयन बाण
गाफिल = अचेत / बे-सुध / बेखबर
समान-ए-कज़ा = मौत का सामान / अनुपम सौन्दर्य / बहुत खूबसूरत