एक मीठी मुस्कान (कहानी) - आर.सूर्य कुमारी

 

utkarshexpress.com - मेरा परिवार एक परम्परावादी परिवार था। हम तीन बहनें थीं और सबसे छोटा एक भाई था। मैं बहनों में सबसे छोटी थी। मेरे परम्परावादी पिताजी हम लड़कियों को ज्यादा पढ़ाना-लिखाना व आजादी देना नहीं चाहते थे। उनके विचार से लड़की पराई होती हैं और जितनी जल्द हो सके उसे विदा कर देना माता-पिता का फर्ज है। मेरी अम्मा भी पिताजी की तरह थीं। वे समझती थीं कि आज लड़कियों का भटकाव किसी सीमा तक उन्हें आजादी देने की वजह से है। इसलिये जल्द से जल्द उन्हें ससुराल भेज देना ही समय की मांग है। हम लोगों को अंकुश में रखने के लिये ही मेरे माता-पिता ने जल्द से जल्द हमारी शादियां कर डालने का निर्णय किया। मेरे माता-पिता को हमारे छोटे भाई से बहुत सारी अपेक्षाएं थीं। लड़का है, खूब पढ़ेगा, बड़ा अफसर बनेगा, बहू आएगी, बहुत सेवा करेगी।
इस कारण मेरी सबसे बड़ी दीदी की शादी इन्टर पास करते ही कर दी गई थी और मेरे ऊपर वाली दीदी की शादी बी.ए. में अध्ययनरत रहते हुए ही कर दी गई थी। मेरे लिये माता-पिता जल्द से जल्द लड़का देखना चाहते थे। दोनों दीदियों की शादियां शहर के लड़कों से ही हुई थीं, जहां हम रहते हैं। अब मेरी दीदियों ने माता-पिता से कह दिया कि अगर मैं चाहूं तो वे मेरे लिये भी अच्छा-सा लड़का ढूंढ़ सकती हैं।
मैं बचपन से ही जरा गरम मिजाज की थी। स्वाभिमान व अधिकारों के प्रति मैं बहुत ज्यादा सजग थी। मैंने साफ-साफ कह दिया कि जब तक मैं अपने पैरों पर खड़ी नहीं हो जाती, अपने बलबूते पर कुछ हासिल नहीं कर लेती, तब तक मेरे लिये शादी के कोई मायने नहीं। और फिर छोटा भाई पढ़ता था और ऊपर की दोनों बहनों की शादियां हो चुकी थीं, इसलिये मेरे माता-पिता यह कारण नहीं दिखा सके कि मुझसे छोटी बहनें हैं तुम शादी न करोगी तो उनकी बारी कब आएगी। इसलिये भी मेरे माता-पिता ने लड़का देखने का काम धीमा कर दिया। मैंने बी.कॉम बड़े ही आराम से पास किया, फिर पास के ही एक शहर के बैंक में क्लर्क की नौकरी भी मिल गई। लेकिन मेरे माता-पिता ने मेरे नौकरी करने के निर्णय का कड़ा विरोध किया और शादी कर डालने की सलाह दी। उन्होंने नये बने माहौल में अपनी पढ़ाई पूरी कर रहे भाई का वास्ता भी दिया, यह कहकर कि कहीं नौकरी पाकर वह शादी का निर्णय न कर बैठे। लेकिन मैंने साफ शब्दों में उनकी सलाह को नकार दिया और नौकरी करने की जिद पर अड़ गई। थके-मंदे-हारे माता-पिता मुझे वहां किराये के घर में छोड़ आये, काफी हिदायतें देकर।
मैं जिस बैंक में काम करती थी, उस बैंक की प्रधान शाखा उसी शहर में दो-तीन किलोमीटर की दूरी पर थी। वहां प्राय: फाइलों के बारे में बातचीत करने के लिये मुझे भेजा जाने लगा। पहले ही दिन की बात हैं, जैसे ही मैं मैनेजर साहब के कक्ष के दरवाजे पर खड़े होकर अन्दर आने की अनुमति मांगने को हुई, उनके होठों पर खिली मीठी मुस्कान देखकर दंग रह गई। जल्द ही मुझे लगा कि मैं सुन्दर स्मार्ट नहीं हूं ऊपर से नर्वस भी हूं इसलिये मुझे देखकर उन्हें हंसी आ रही है। फिर लडख़ड़ाती जुबान से मैंने उनसे अन्दर आने की अनुमति मांगी 'सर क्या मैं अन्दर आ सकती हूं।'
उन्होंने कहा- 'हां जरूर। क्यों नहीं!'  डरी-सहमी हुई मैंने आनन-फानन में फाइलें निपटाईं और 'नमस्ते' कहकर बाहर निकल गई। जाते-जाते एक बार मन में आया कि जरा घूमकर देखूं कि अब भी मैनेजर साहब के होठों पर वहीं मुस्कान है या नहीं। मगर हिम्मत न जुटा पाई क्योंकि उनके बुरा मान बैठने का डर सता रहा था।
अपने बैंक लौटकर मैंने अपने कई काम निपटाए और घर की ओर कदम बढ़ाने लगी। मैनेजर साहब की वह मुस्कान मुझे भूले नहीं भुलाती थी। क्या मुझे मैनेजर साहब भा गए हैं। क्या मैं उनको भा गई हूं, इसकी परिणति क्या होगी। प्रणय से लेकर परिणय तक की सभी कल्पनाएं मेरे मन में हिलौरे भरने लगीं। मगर जल्दी ही मैं यथार्थ के धरातल पर उतर आई। मन में आया प्रेम जैसी दीवानगी को लेकर हजारों ने हजार किस्म की बातें कहीं हैं। आज के माहौल में लैला-मजनूं और हीर-रांझा की कहानियां शायद ही खरा उतर पाएंगी। मैं एक मामूली परिवार की लड़की हूं। आसमान छूने के लिये कोई निपुणता मुझमें नहीं है। जमीन-आसमान के बीच की खाई को पाटते-पाटते कहीं बीच में फंस न जाऊं, दब न जाऊं, अपना अस्तित्व न खो बैठूं। स्वाभिमान भी तो आखिर कोई चीज होती है। उसके साथ समझौता कैसे करूं ? फिर मैंने बड़ी कोशिश कर खुद को भावनाओं से बचाया और जब भी प्रधान शाखा जाती थी मैनेजर साहब की उस मुस्कान को झेलती थी। बाहर निकलती थी तो चैन की सांस लेती थी। हां कुछ घंटों तक अनायास ही भावुक बनी रहती थी।
कुछ दिन तक यह किस्सा चलता रहा और एक दिन पिताजी का फोन आया। उन्होंने बताया कि छोटा भाई जिसने अभी-अभी एक कंपनी में अच्छी नौकरी हासिल की है, प्रेम विवाह करने जा रहा है। उससे पहले मेरी शादी हो जानी चाहिए। इसलिये अच्छा तो यही होगा कि दो-तीन दिन की छुट्टी लेकर घर पहुंच जाऊं। लड़के वाले मुझे देखने आ रहे हैं। खुद को काफी समझाती हुई इस निर्णय पर पहुंची कि पिताजी देखेंगे तो अच्छा रिश्ता ही देखेंगे। मां देखेंगी तो अच्छा रिश्ता ही देखेंगी। दीदियों के लायक का रिश्ता तो आखिर बड़े बुजुर्गों ने ही तो देखा था। कोई खोट नहीं निकला। मैनेजर साहब की ओर से अपने ध्यान को हटाने के लिये भी शादी कर डालना एक साधन हो सकता है यह बात भी दिमाग में आई। मेरे पहुंचने के बाद मेरे पिताजी ने अपने स्वभावानुसार कहा-'कौन-सा लड़का, कहां का लड़का, क्या करता हैं, यह सब बातें बाद में होंगी। पहले लड़का तो पसन्द आने दो। चिंता न करो। तुम पर हम कुछ थोपेंगे नहीं। तुम्हारे हर निर्णय का हम स्वागत करेंगे।' मौके पर मैं चाय की ट्रे लेकर बैठक में गई तो वहां उस चिर-परिचित मुस्कान को देखकर दंग रह गई। मेरे हाथों से ट्रे गिर गई और मैं चीख पड़ी। सब कुछ अस्त-व्यस्त हो गया। मैं शर्म के मारे अन्दर चली आई। अपने कमरे में आई, दरवाजा बंद कर रोने लगी। उस दिन का कार्यक्रम ठप हो गया। लड़के वाले किसी भी अभिप्राय को न भांप सके।
मगर बाद वाले दिन ही मैंने रो-धोकर अभिभावकों को अपना निर्णय सुना दिया कि मैं इतने ऊंचे स्तर के लड़के से शादी नहीं कर सकती, कोई बराबर का लड़का ढूंढ़ा जाए ताकि मुझे एक पत्नी का सम्मान मिल सके। फिर मैं बिस्तर बोरिया समेटकर वहां से चल पड़ी और बैंक के काम में व्यस्त हो गई। दो-तीन दिन बाद ही प्रधान शाखा के मैनेजर तबादले पर जा रहे हैं यह सुनकर मैंने खुद को तसल्ली दी। जब ऊपर के अधिकारी ने प्रधान शाखा जाकर फाइल निपटाकर आने का आदेश दिया तो मैंने यह सोचकर खुद को तसल्ली दी कि आखिरी बार ही तो जाना है। किसी तरह खुद को सम्हाल लूं। फिर पिंड छूटा समझो।
जैसे ही मैं उनके कक्ष के दरवाजे पर पहुंची, मैंने सर उठाकर मैनेजर साहब के चेहरे की ओर देखा। मगर दंग रह गई। वह चिर-परिचित लुभाने वाली मुस्कान गायब थी। चेहरा सूख गया था। बेहद दर्दनाक हालत थी। मैं समझ सकती थी कि मैं ही इसका कारण हूं। मैं फूट-फूटकर रो पड़ी। मैनेजर साहब उठकर मुझ तक आये और प्रश्र किया- 'क्या बात हैं, रो क्यों रही हो? मैने कहा- 'मैं आपकी मधुर मुस्कान को छीनना नहीं चाहती, रौंदना नहीं चाहती।'
वे बोले- 'तो क्या मैं यह मान लूं कि मेरा प्रस्ताव तुम्हें मंजूर है!'
वे बोले- 'तो फिर लो यह चाकलेट। उस दिन से मेरी जेब में पड़ी है। इसे तुम तक पहुंचाने के लिये पागल की तरह बैचेन था।'
मैंने सर झुकाकर ही कहा- 'आपको अब मुस्कुराना चाहिये।'
उन्होंने कहा- 'आंखें उठाकर मेरी ओर देखो।' और मैं शरमाकर रह गई। (विभूति फीचर्स)