प्रवासियों के प्रति स्नेह या कुंठा : माता-पिता की दृष्टि से - कर्नल प्रवीण त्रिपाठी

 

Utkarshexpress.com - प्रवासी शब्द सुनते ही सबसे पहले जो छवि दिमाग में आती है वह है मीडिया के विभिन्न माध्यमों तथा साहित्य के माध्यम से उकेरा या परोसा गया एक शब्द चित्र जो कि उद्विग्नता पूर्ण व काफी हद तक नकारात्मक दृष्टिगोचर होता रहा है।
प्रवासियों द्वारा अपने देश को छोड़ कर किसी अन्य देश में बसने के उद्देश्य से जाना न तो कोई नई प्रक्रिया है और न ही यह सिर्फ भारत तक सीमित है। यह प्रक्रिया विभिन्न उद्देश्यों को लेकर सदियों से विभिन्न देशों में चलती आ रही है। इस तरह के प्रवास स्थाई अथवा अस्थाई दोनों प्रकृति के हो सकते हैं। साथ ही बहुत बार अस्थाई प्रवास स्थायी प्रवास में बदल जाता है। जिसका मुख्य कारण अस्थाई प्रवास के दौरान बेहतर जिंदगी, स्तरीय सुख-सुविधाओं तथा अधिक आमदनी होता है जो कि पैतृक देश में नहीं प्राप्त हो पाता। तो वहीं 
अस्थाई प्रवास अन्य देश में ज्ञानार्जन अथवा उच्च शिक्षा के उद्देश्य से होता है जो कि सीमित अवधि के लिए होता है। जबकि स्थाई प्रवास बेहतर जिंदगी की तलाश में अन्य देश में बसने के उद्देश्य को लेकर होता है। 
उपरोक्त दोनों प्रकार के प्रवास में गमन की दिशा एकतरफा अर्थात अविकसित अथवा विकासशील देशों से विकसित अथवा विकासोन्मुख देशों की ओर होता है, इसके ठीक विपरीत अपवाद स्वरूप परिस्थितिजन्य अथवा किसी विशेष उद्देश्य से प्रवास विकसित देशों से विकासशील अथवा अविकसित देशों की ओर भी हो सकता है।
अपने देश में दशकों से पश्चिमी देशों की ओर हो रहे इस पलायन को brain drain का नाम दिया गया जो हमेशा चर्चा का विषय बना रहा। सुधी पाठकों ने अपने छात्र जीवन में कभी न कभी इस विषय पर या तो निबंध लिखे होंगे या फिर वाद-विवाद प्रतियोगिता में भाग लिया होगा। प्रवासियों से संबंधित चर्चा के मूल में तार्किक की तुलना में संवेदनशीलता की भावना अधिक दृष्टिगोचर होती है।
भारत के परिप्रेक्ष्य में देखा जाए तो यह प्रक्रिया सामाजिक और मनोवैज्ञानिक स्तर पर अधिक समीचीन लगती है। भारत से बाहर दूसरे देशों में जा कर पढ़ाई करना या जीविकोपार्जन करना दो मुख्य कारणों से होता है। पहला आरक्षण के कारण अच्छे उच्च शिक्षण संस्थानों में प्रवेश न मिल पाना या अच्छी नौकरियां न मिल पाना है। दूसरा कारण विद्वता के अनुपात शोध और विकास के अवसरों की कमी। तीसरा और अपेक्षाकृत कम प्रतिशत में देखा जाने वाला कारण है बेहतर जिंदगी और सुख-सुविधाओं की चाह।
विदेश मंत्रालय द्वारा जारी आंकड़ों के अनुसार विश्व भर में लगभग 3.2 करोड़ अप्रवासी भारतीय(एन आर आई तथा ओ सी आई मिला कर)  रहते हैं  जो कि अन्य देशों की तुलना में सर्वाधिक है। एक अनुमान के अनुसार हर वर्ष लगभग 25 लाख भारतीय प्रवास के लिए विदेशों का रूख करते हैं तथा सबसे पसंदीदा देश संयुक्त राज्य अमेरिका है।  
अब प्रश्न उठता है कि ऐसे प्रवासियों के प्रति परिवारीजनों एवं बाकी समाज का नजरिया क्या है? तो इसके उत्तर को मनोवैज्ञानिक धरातल पर परखने की आवश्यकता है। यहां पर यह देखना आवश्यक होगा कि परिवार के सदस्य विशेष तौर पर बच्चे किन परिस्थितियों में देश से बाहर गए हैं। अगर बच्चे माँ-बाप की इच्छा के विरुद्ध गए हैं तो उनमें अकेलेपन के अहसास के साथ-साथ कुंठा का पैदा होना स्वाभाविक है। इसके साथ-साथ इस मनोभाव के पीछे शायद अदृश्य रूप से समाज से सहानुभूति पाने की इच्छा भी शामिल होती है। इस नकारात्मक मनोभाव को सुदृढ करने में इन विषयों पर बनी कुछ फिल्में तथा सृजित साहित्य का भी परोक्ष योगदान है। इसके अतिरिक्त यह भी महसूस किया कि वे लोग भी कुंठित हो जाते हैं जो या तो खुद नहीं जा पाते या किन्हीं कारणों से जिनके बच्चे विदेश नहीं जा पाते हैं।
इसके विपरीत जब माता-पिता बच्चों के अच्छे भविष्य के लिए उन्हें खुशी-खुशी विदेश भेजते हैं तो उनमें नैराश्य तथा कुंठा नहीं पनपती। बल्कि वे इसे सकारात्मक रूप में लेते हैं। ऐसे माता-पिता बच्चों के बाहर जाने से उपजे अकेलेपन को सकारात्मक ढंग से दूर करते हैं। आज के तकनीकी युग में फोन पर ऑडियो-वीडियो कॉल के माध्यम से यह कमी काफी हद तक दूर की जा सकती है। साथ बच्चों के पास जाकर न केवल अपना मन बदल सकते हैं अपितु देश से बाहर रह रहे बच्चों के अंदर पारिवारिक शून्यता को दूर करने में सहायक हो सकते हैं।
रही बात वृद्धावस्था के समय बच्चों के साथ की, तो अगर बच्चों का लालन-पालन सही ढंग से हुआ है था उनमें संस्कारों का सही रोपण हुआ है तो वे अपने बुजुर्ग माता-पिता की अच्छी तरह से देख-भाल करेंगे। वरना तो देश में भी रह कर माता-पिता को अनदेखा करने के समाचार अक्सर पढ़ने-सुनने को मिलते रहते हैं। अस्तु प्रवासियों के प्रति कुंठा या स्नेह व्यक्तिगत सोच और अनुभवों ओर निर्भर करता है। लेकिन इतना तो कहा जा सकता है कि समय में बदलाव के साथ लोगों की सोच में बदलाव आ रहा है और धीरे-धीरे कुंठा की भावना लुप्त होती जा रही है और उसका स्थान प्रवासियों के प्रति स्नेह और सम्मान की भावना लेती जा रही है। इसके पीछे एक और बड़ा महत्वपूर्ण कारण भी है। आज विश्व की बड़ी से बड़ी कंपनियों और संस्थानों में प्रवासी भारतीय अपना सिक्का चला रहे हैं जो कि सभी के लिए गर्व की बात है।
- कर्नल प्रवीण शंकर त्रिपाठी, नोएडा , उत्तर प्रदेश, भारत