आखिर मप्र में कांग्रेस क्यों हारना चाहती है ? - राकेश अचल

 

Utkarshexpress.com - पिछले साल लगभग जीता हुआ विधानसभा चुनाव हारने के बाद क्या कांग्रेस लोकसभा में भी हारने का मन बनाये बैठी है ? यह सवाल कांग्रेस द्वारा लोकसभा चुनाव के लिए प्रत्याशियों के चयन को लेकर की जा रही लेतलाली के कारण उठने लगे हैं।  2019  के लोकसभा चुनाव में कांग्रेस के पास मप्र की 29   सीटों में से मात्र एक सीट हिस्से में आयी थी। इस बार भी कांग्रेस ने प्रत्याशियों के चयन में सतर्कता नहीं बरती और चुनाव होने से पहले  ही अनेक सीटें भाजपा को जीतने के लिए छोड़ दीं है।  2014  के लोकसभा चुनाव में कांग्रेस के पास मात्र 2  सीटें थीं।
कांग्रेस इस बार प्रत्याशियों के नामों की घोषणा में भाजपा से पिछड़ गयी है ।  कांग्रेस ने पहली सूची में 12  प्रत्याशियों के नाम दिए थे ।  बाद में किश्तों  में चार-छह नाम आते रहे किन्तु अभी भी ग्वालियर और मुरैना सीट के लिए कांग्रेस अपने प्रत्याशियों के नाम घोषित नहीं कर पायी है। कांग्रेस में एक ओर तो पार्टी छोड़ने वालों का सिलसिला थम नहीं रहा दूसरे कांग्रेस अभी तक एक मजबूत प्रतिद्वंदी की तरह मैदान में खड़ी दिखाई नहीं दे रही है। कांग्रेस के दिग्गज नेता भी आधे-अधूरे मन से चुनाव मैदान में उतरे हुए  हैं। ग्वालियर-चंबल संभाग में तो कांग्रेस ने गुना और भिंड से जिन नामों की घोषणा की है उसे देखकर लगता है कि कांग्रेस यहां जीतना ही नहीं चाहती।
आम धारणा है कि कांग्रेस को इस चुनाव में पार्टी के पहले बड़े विभीषण केंद्रीय मंत्री ज्योतिरादित्य सिंधिया के खिलाफ कोई मजबूत और चौंकाने वाला प्रत्याशी मैदान में उतारना चाहिए था ,लेकिन ऐसा नहीं किया गया। सिंधिया के खिलाफ कांग्रेस ने पूर्व विधायक स्वर्गीय  देशराज सिंह के बेटे  राव यादवेंद्र सिंह को प्रत्याशी बनाया है। कहने को सिंधिया और राव खानदान के बीच ये मुकाबला नया नहीं है। दोनों परिवारों के  सियासी मुकाबला  पुराना  है।  यहां वर्ष 1999 के चुनाव में माधवराव सिंधिया और देशराज सिंह यादव के बीच मुकाबला हुआ था। उसके बाद 2002 के उपचुनाव में ज्योतिरादित्य के सामने देशराज सिंह थे।  अब सिंधिया का मुकाबला देशराज के पुत्र यादवेंद्र सिंह से है। यादवेंद्र सिंह का परिवार पुराने भाजपा परिवार के तौर पर पहचाना जाता है।  उनके पिता देशराज सिंह यादव भाजपा के बड़े नेता रहे हैं। यादवेंद्र सिंह भी भाजपा में रहे हैं, मगर वर्ष 2023 के विधानसभा चुनाव से पहले उन्होंने अपने परिवार के अन्य सदस्यों के साथ कांग्रेस का दामन थाम लिया था।  
कांग्रेस प्रत्याशी यादवेंद्र सिंह की मां  तक उनके साथ नहीं हैं। वे  जिला पंचायत सदस्य हैं, और  भाजपा में लौट चुकी हैं ।उनके परिवार के अन्य सदस्य भी भाजपा में शामिल हो चुके हैं।  गुना संसदीय क्षेत्र में तीन जिलों के विधानसभा क्षेत्र आते हैं, इनमें शिवपुरी के तीन, गुना के दो और अशोकनगर के तीन विधानसभा क्षेत्र हैं।इन आठ विधानसभा क्षेत्र में से छह विधानसभा क्षेत्र पर भाजपा का और दो पर कांग्रेस का कब्जा है। सिंधिया के लिए केवल यादव मतदाताओं की बगावत ही नुकसान कर सकती है अन्यथा उनकी जीत पक्की है।
गवालियर सीट से भाजपा ने विधानसभा चुनाव हारे पूर्व मंत्री भारत सिंह को प्रत्याशी बनाया है ।  उनका  नाम सामने आते ही ये धारणा बन गयी थी कि अब भाजपा ये सीट जीतना भाजपा के लिए मुश्किल होगा बशर्ते कि कांग्रेस किसी मजबूत नेता को अपना प्रत्याशी बनाये लेकिन कांग्रेस अभी तक यहां अपना प्रत्याशी तय नहीं कर पायी है। यही स्थिति मुरैना सीट को लेकर है ।  मुरैना सीट से भी भाजपा ने पूर्व केंद्रीय मंत्री नरेंद्र सिंह तोमर के भक्त पूर्व विधायक शिवमंगल सिंह तोमर  को प्रत्याशी बनाया है। तोमर की छवि भी यहां ज्यादा अच्छी नहीं है ।  कांग्रेस यहां किसी भी मजबूत प्रत्याशी को लाकर लोकसभा की सीट जीत सकती थी ,लेकिन कांग्रेस ने यहां भी अभी तक प्रत्याशी का नाम तय नहीं किया है। हालाँकि मुरैना से पूर्व मंत्री राम निवास रावत कांग्रेस की ओर से चुनाव लड़ने को उतावले हैं। भिंड आरक्षित सीट से भाजपा ने अपने वर्तमान सांसद को ही मैदान में उतारा है।  उनके खिलाफ कांग्रेस ने अपने विधायक फूल सिंह बरैया को मैदान में उतारा है।  वे सवर्णों को सरेआम  गरिया चुके हैं ,ऐसे में उनका जीतना आसान नहीं है ,जबकि  ये सीट कांग्रेस के लिए  मुरैना और ग्वालियर की सीट की तरह आसान हो सकती थी।
कांग्रेस की एक मात्र सुरक्षित सीट छिंदवाड़ा भी कांग्रेस में भाजपा द्वारा की गयी व्यापक तोड़फोड़ की वजह से खतरे में है ,कांग्रेस के दिग्गज दिग्विजय सिंह को हालाँकि कांग्रेस ने राजगढ़ से प्रत्याशी बनाकर छिंदवाड़ा की संभावित हार की भरपाई करने के लिए प्रत्याशी बनाया है लेकिन दिग्विजय सिंह राजगढ़ के मौजूदा भाजपा सांसद रोडमल नागर के सामने कितना टिक पाएंगे कहना कठिन है। नागर पिछले तीन चुनाव जीत चुके हैं। लगता है कि कांग्रेस को अब मध्यप्रदेश में वोटों की खेती करने में डर लगने लगा है ,अन्यथा इस बार ये मौक़ा था जब यहां से कांग्रेस कम से कम 10  सीटें आसानी से जीत सकती थी। अब देखना होगा कि हर तरह से कंगाल हो चुकी कांग्रेस मध्यप्रदेश में अपनी विजय पताका कितनी  सीटों पर फहरा सकती है या उसे इस बार अपनी बचीखुची एकमात्र छिंदवाड़ा सीट से भी हाथ  धोना पड़ सकता है ?(विभूति फीचर्स)