के बूझेला पीर पराई? - अनिरुद्ध कुमार

 

नइहर छूटल पीहर अइनी,
छूटल बाप मतारी बहिनी,
लाडो केबा बोलेवाला,
दुखके कांटा चूनेवाला,
रूठल लागेला परछाई।
             के बूझेला पीर पराई?
सखी सहेली काम न अइली,
सबजानी बस रस्म निभइली,
बचपन के टूटल सब सपना,
छूट गइल आपन घर अँगना
छलनी छाती पल दुखदाई।
                के बूझेला पीर पराई?
लोकलाज के ओढे चादर,
उमड़ रहल नैनों से सागर,
सौंप प्रेम के खाली गागर,
दिहले जोड़ गैर से आंचर,
बंद आँख सोचीं सकुचाई।
                  के बूझेला पीर पराई?
सब कुछ लागे जइसे सपना,
जानत नइखीं केबा अपना,
नारी के जीवन भर तपना,
झेलीं सामाजिक प्रवंचना,
विधना के हम का समझाईं।
                   के बूझेला पीर पराई?
- अनिरुद्ध कुमार सिंह, धनबाद, झारखंड