गीतिका - मधु शुक्ला

 

नायक बच्चों के मनभावन, माता का शृंगार पिताजी,
सदन बाग के सूरज, चंदा, जीवन का आधार पिताजी।

आशाओं के कुसुम खिलाते, स्वप्न मंजिलों तक पहुँचाते,
अथक परिश्रम, त्याग, क्षमा का, होते हैं भंडार पिताजी।

अलादीन का जिन बन जाते, चाहत मन की पढ़ लेते हैं,
मनचाहा उपहार हमेशा, कर देते तैयार पिताजी।

उत्तम शिक्षा, संस्कारों के, मौसम को ले आते बढ़कर,
ताना बाना बुन उन्नति का, करते यश विस्तार पिताजी।

जीवन पथ के हर कंटक को, नौ दो ग्यारह कर देते हैं,
छल,प्रपंच और घात कलह का,सिखलाते उपचार पिताजी।

अनुभव से कृत जीवन दर्पण, सम्मुख रखने के कारण ही,
रूप जगत का वे पहचानें, रखते ज्ञान अपार पिताजी।

हार गूँथ कर आशीषों के, बच्चों को पहनाते रहते,
चाह न कोई रखें हृदय में, देव रूप साकार पिताजी।
-- मधु शुक्ला, सतना, मध्यप्रदेश