गीतिका - मधु शुक्ला

 

कर्म, आचरण में समता को, नहीं निभाते लोग,
पहन मुखौटा अक्सर रहते, सत्य छिपाते लोग।

देश प्रेम जन सेवा में रुचि, दिखलाते बन नम्र,
हाथों में सत्ता आते ही, अति गुर्राते लोग।

जो दहेज माँगे वह पापी, करिए उसका त्याग,
चीख-चीख कर बोलें, पर सुत, मूल्य बढ़ाते लोग।

बेटा, बेटी को सम कहते, होते  नहीं  उदार,
धन बल सुत को और सुता को, किचन थमाते लोग।

खैनी, बीड़ी, गुटखा, दारू, मर्दों के हैं शौक,
छुए अगर नारी इन सबको, रोष जताते लोग।

कौन - कौन है भ्रष्टाचारी, कहाँ - कहाँ है पोल ,
ज्ञात रखें पर मुफ्त माल गह, खुशी मनाते लोग।

यह संसार मोह का सागर, विरले होते पार,
ज्यादातर मझधार लुढ़क कर, वापस आते लोग।
 — मधु शुक्ला, सतना, मध्यप्रदेश