गीतिका -  मधु शुक्ला

 

समय का मोल पहचानो अनिश्चित जिंदगानी है,
यही तो सीख पाई गुरु पिता माँ से सुहानी है।

अवस्था एक जैसी हर समय रहती नहीं तन की,
सजा लो स्वप्न श्रम द्वारा यही कहती जवानी है।

सदन आबाद रहता जब परस्पर प्रीति हो मन में,
तजो सपने सभी घर के हुकूमत यदि चलानी है।

कलम के धर्म से अनभिज्ञ लेखन से मिलेगा क्या,
खरीदे नाम से गरिमा नहीं उर में समानी है।

सतत उन्नति सहज जीवन बिताना ज्ञान सिखलाता,
न शिक्षा धार पाया जो कहाता वह न ज्ञानी है।

बचत का मंत्र उत्तम है सभी को सीखना होगा,
हमें अवहेलना संसाधनों की भूल जानी है।

कहानी एकता सद्भावना की हम लिखें हरदम,
इसी तकनीक द्वारा विश्व में नव भोर आनी है।
— मधु शुक्ला, सतना, मध्यप्रदेश