ग़ज़ल - रश्मि मृदुलिका

 

क्या गजब सरेबाजार इकंलाब हो गया,
मोहब्बत का गुनहगार आजाद हो गया। 
एक तालाब सिक्ता रेगिस्तान बन गया,
आंखों में ही एक शहर इयाद हो गया।
अक्सर खामोश रहता था वो शख्स, 
खुली क्या जुबान उसकी फसाद हो गया।
इस चहरे से उस चहरे तक इशारा हुआ, 
बेपनाह इश्क का जैसे संवाद हो गया।
घमंड की चाबी से दिल के दरवाजे खुलते कैसे,
बंद घर में वादों का सामान बर्बाद हो गया गया।
निभाये न गए दस्तूर जीने के जब आदमी से,
अबल का एक नया फलस़फा इजाद हो गया।
- रश्मि मृदुलिका, देहरादून , उत्तराखंड