ग़ज़ल - विनोद निराश
Nov 26, 2024, 22:07 IST
झुका नज़र रुत हंसीन कर गई,
दिल बेचैन नाज़नीन कर गई।
बिखरा के जुल्फों को शानों पर,
तन्हा शाम मेरी रंगीन कर गई।
मख़मली से रुखसार सुर्ख लब,
फरेब वो बू-ए-नसरीन कर गई।
सुफेद दुपट्टा वो कानो की बाली,
जुर्म मुझपे वो संगीन कर गई।
मिज़ाजे-मौसम तो बेहतर था पर,
उसकी बेरुखी बे-रंगीन कर गई।
चैनों-सुकूं कहाँ रहा बादे-रुखसत,
निराश ज़िंदगी ग़मगीन कर गई।
- विनोद निराश , देहरादून
नाज़नीन - सुन्दरी / ख़ूबसूरत / दिलरुबा / महबूबा .
शानों पर - कांधों पर
रुखसार - कपोल / गाल
सुर्ख लब - लाल ओष्ठ / लाल होंठ
फरेब - धोखा
बू-ए-नसरीन - सफ़ेद गुलाब जैसी महक / चैती गुलाब की खुश्बू
मिज़ाजे-मौसम - रुत की प्रकृति / मौसम का स्वभाव / मौसम का मिज़ाज़
चैनों-सुकूं - आराम / मानसिक शांति / कलेजे की ठंडक
बादे-रुखसत - चले जाने के बाद / बिछुड़ने के बाद / विदाई के बाद