गुनाह (कहानी) - दुर्गा प्रसाद शुक्ल ''आजाद"
Utkarshexpress.com - ''हूं ,तो आपने क्लर्क की पोस्ट के लिये एप्लाई किया है'- मैंनेजर ने नाक से चश्मा उठाकर साफ करते हुए कहा।
''जी हां।' राजू हकलाता हुआ बोला। ''क्या क्वालिफिकेशन है?'
और राजू का मुंह प्रश्न वाचक बन गया। हकलाते हुआ बोला-''जी, एम.एस.सी. हूं।'
''कौन सी डिवीजन में पास की है एम.एस.सी. आपने?' और मैंनेजर ने अपनी निगाहें फाइलों पर गड़ा दी।
''जी सेकिंड डिवीजन, मैट्रिक में फर्स्ट क्लास, इन्टर और बी.एस.सी.फर्स्ट , परंतु एम.एस.सी. में सैकिंड डिवीजन ही रह गई।'
''और आपने क्लर्क के लिए अप्लाई किया है?" मैनेजर की आंखें आश्चर्य से फैल गईं। ''आप किसी अच्छी जगह क्यों नहीं अप्लाई करते मिस्टर राजू! यहां आपका कैरियर बिगड़ जायेगा।" मैंनेजर ने एक लम्बी सांस ली। लेकिन मैनेजर को क्या पता कि उसे अपना कैरियर नहीं बनाना, उसे भरना है अपना पेट, उसे करने हैं पीले हाथ अपनी छोटी बहन के और दिलानी है मुक्ति अपने पिता को, सेठ के उस कर्ज से जो कि उसकी पढ़ाई के लिये लिया गया था। उसे अपनी पत्नी तथा ससुराल वालों के व्यंग्य बाणों से छुटकारा पाना था और समाप्त करना था वह दाग, जिसे आज के कार वाले लोग बेकार कहते हैं। परंतु मैंनेजर कैरियर बनाने की बात कह रहा है। अगर उसके पास पैसा और पहुंच होती तो वह भी अपना कैरियर बना सकता था परंतु इस बेचारे को क्या मालूम। और राजू को अपने पिछले दिन चलचित्र की भांति दृष्टि पटल पर दिखाई देने लगे।
''राजू तुम्हारा कैरियर बहुत ब्राइट है। फर्स्ट क्लास फर्स्ट हो। स्कॉलरशिप मिलेगा बोर्ड से। और उसकी प्रोफेसर रागिनी दीक्षित ने एक अखबार उसके सामने कर दिया।
''आपका आशीर्वाद है मैडम। और राजू ने श्रद्घा से सिर झुका लिया।
''यह तो सब ईश्वर का करिश्मा है, परंतु अब आगे क्या इरादा है।" और वह चुप हो गईं।
''यही बात तो मैं आपसे पूछना चाहता था, बतलाइये मैडम, क्या सब्जैक्ट लूं इन्टर में?"
''जिसमें तुम्हें इंटे्रस्ट हो।" ''मुझे तो मेडिकल में इंटे्रस्ट है। मैडम बायोलोजी लूंगा। "
और मैडम कुछ खो सी गयी फिर कुछ सोचती हुई बोली-''राजू इंटर के बाद पांच साल का कोर्स है- एम.बी.बी.एस. का, क्या सहन कर सकेंगे तुम्हारे पैरेन्ट्स, तुम्हारा यह सब भार?"
''मुझे स्कॉलरशिप जो मिलेगी।" और राजू का भोला मुख और भी भोला हो गया।
''विश यू बेस्ट ऑफ लक"और मैडम चल दी। वह नहीं चाहती थी कि जमीन की सच्चाई बताकर राजू को कोई ''शॉक" लगे। स्कॉलरशिप उसके बजाय एक मास्टर के भाई को मिल गई जो सैकिंड था और राजू की केवल आधी फीस ही माफ की गई।
दृश्य की दूसरी रील आई। इंटर का परीक्षा फल, ''राजू तुम अबकी बार भी फर्स्ट क्लास फर्स्ट हो।" प्रमोद ने कहा झूमते हुए।
''नहीं भाई सैकिंड हूं।"
''चलो मान लो, पर यह क्या कम है उस्ताद। किसी भी काम्पीटीशन में बैठोगे टाप करोगे।"
''यह सब ईश्वर की कृपा और आप लोगों के सहयोग का फल है, वर्ना मेरा इतना साहस।" और दोनों हंस पड़े। ''क्यों उस्ताद अगर तुम कोई बड़े अफसर बन गये तो भूल जाओगे यह यारी क्या?" प्रमोद ने राजू को छेड़ते हुए कहा।
''अफसरी और यारी क्या कभी बराबर हो सकती है प्रमोद? "
''कभी नहीं, लेकिन अफसरी मिलने पर दिमाग फिर जाता है।"प्रमोद ने दार्शनिकता से कहा।
''तो मैं फिर अफसरी करूंगा ही नहीं।" राजू बोला।
मनुष्य के दुखद क्षणों में सुखद क्षणों की एक रेखा अपना प्रकाश कहीं न कहीं पर अवश्य कर देती और दुख के उन क्षणों में भी मनुष्य मुस्कराने पर मजबूर हो जाता है और इसके विपरीत जब वह सुख के क्षणों में सुखद कल्पनाओं की सीढ़ी पर चढ़ता है तो दुख की एक काली रेखा अपना मुंह दिखला देती है और मनुष्य को सुख के क्षणों की याद भुलाकर दुख में डूबना पड़ता है और राजू को एक ''शॉक" लगा। उसकी प्यारी ममतामयी वास्सल्य दायी मां की मृत्यु, उसकी शादी और उसके बंधन। लेकिन फिर भी राजू ने बी.एस.सी में प्रवेश लिया। प्रथम श्रेणी प्राप्त की। लखनऊ जाकर आर्थिक कठिनाईयों की परिस्थिति, पत्नी के व्यंग्य, ससुराल वालों की बेरूखी तथा भाग्य के कूर हाथों ने अपनी कुटिलमुष्टिका से उसे निर्बल बना दिया और कर दिया उसकी अतुल बुद्घि राशि का विनाश जिस पर गर्व था उसके गांव वालों को। वह सुचारू रूप से न चला सका अपनी पढ़ाई, इन चिन्ताओं के फेर में और एम.एस.सी. में सैकिंड क्लास ही रह गई उसकी और उसके सारे अरमान भी सैंकिड क्लास की तरह लटकते रह गये।
घर वालों का दबाव, पत्नी का विद्रोह और ससुराल वालों के व्यंग्य, गांव वालों की गिरगिट निगाहें छोटी बहन का जीवन और जलता हुआ पेट, इन सबने मजबूर कर दिया कि वह नौकरी करे। लेकिन विचारों का तांता टूट गया। गजेटेड पोस्ट तो कम्पीटीशन में सिलेक्ट होने पर मिलती है। सर्विस कमीशन की लम्बी-लम्बी फीसें, फिर उनमें तो आज के मंत्रियों, विधायकों के साले और बहनोई ही जा सकते हैं। अगर मुकाबला किया भी तो इन्टरव्यू में गोल कर देंगे? जगह खाली होने से पहले ही रिजर्व हो जाती है। सीटें हैं पर फलां साहब के दामाद के लिये है और वह अमुक साहब के साले के लिये हैं और फिर मैं तो न किसी बड़े आदमी का साला हूं, न बहनोई और न ही दामाद, इसलिये गजटेड पोस्ट की सोचना ही व्यर्थ है। यह सब सोचकर निराश हो गया राजू।
बिजनेस करो तो पैसे को पैसा कमाता है, लेकिन पैसा कहां से आये और फिर क्या पता कि ऊंट किस करवट बैठे। गरीबी में आटा अपने आप ही गीला हो जाता है और इस विचार की जड़ भी न जम सकी।
''कोई दुकान," राम-राम पहले पगड़ी फिर किराया और दुकान में लागत भी लगाने को चाहिये, यह भी असंभव है तो क्या घास खोंदे? और वह बैचेन हो गया लेकिन अफसोस कि दिल्ली में तो दूर-दूर तक घांस भी दिखाई नहीं देती। पत्थर ही पत्थर। क्या हम घांस खोद सकेंगे? नहीं, वह उस शिक्षा के निकम्मेपन पर सोचने लगा। जिसने उस जैसे कितने ग्रेजुएट्स को निकम्मा बनाकर धक्का दे दिया। हम शारीरिक श्रम नहीं कर सकते। हमें तो शिक्षा ने केवल कागज रंगने वाला रंगरेज बनाया है और पसीना आ गया राजू को। ''तो हम क्या करें चोरी करें, नहीं तो फिर? बाबू बन जायें," और गूंज उठे उसकी कविता के वह शब्द, जो आज से चार साल पहले उसने कालेज में सुनाई थी और फिर उसके धैर्य का बांध टूट गया और आज के अखबार में देखकर वह एप्लाई कर ही बैठा क्लर्की के लिये। ''हां तो आपने जवाब नहीं दिया मिस्टर राजू " मैनेजर ने राजू को चिन्तामग्न देखकर कहा। राजू का ध्यान टूट गया।
''मैनेजर साहब मैं नहीं चाहता कि मेरे पेट के साथ-साथ मेरी आत्मा जले। मैं तो केवल घर में चूल्हा जला देखना चाहता हूं और घर में चूल्हा जलने के लिये यह जरूरी है कि मुझे कहीं न कहीं नौकरी मिले।" फिर उसने अपने अंदर की पीड़ा को दबोचते हुए कहा।
''आजकल के पोस्ट ग्रेजुएट्स का कैरियर केवल क्लर्की के लिये ही बना है। अफसरी करने के लिये ऊंची शिक्षा की जरूरत है और सबसे ज्यादा जरूरी है सिफारिश, पहुंच और थैली का खुला हुआ मुंह।''ओह! तो यह बात है। कुछ प्रभावित होते हुए कहा राजू से मैनेजर ने। मैनेजर साहब, पिछले दिनों नई दिल्ली के कृषि अनुसंधान विश्वविद्यालय के एम.एस.सी. छात्रों ने अभावों और परिस्थितियों से तंग आकर आत्महत्या कर ली। क्या कैरियर बना उनका। क्या यही है हमारे देश में विद्या और गुणों की कद्र, जिस देश में इतना बड़ा स्कॉलर आत्महत्या कर ले, केवल अभावों के कारण उस देश के पोस्टग्रेजुएट्स का कैरियर, इससे अधिक क्या हो सकता है? आये दिन यूनीवर्सिटीज में हड़ताल हो रही है। कई विश्वविद्यालय लगभग बंद होने की कगार पर है। सरकार कहती है कि छात्र उद्दंड हो गये हैं। उधर छात्र कहते हैं शासन अन्यायपूर्ण है और उचित नहीं है। क्या है कारण इन सबका। विश्वविद्यालय के छात्र सोचते हैं आज नहीं तो कल हमें एम्पलायमेंट एक्सचैंजों की झूठी तसल्लियों से पेट भरना होगा। इससे अच्छा तो यह है कि नेता ही बन जायें। अगर कोई चांस एम.पी. का विधायक का आ गया तो पौ भी और बारह भी।" ''क्या यही है कैरियर मैनेजर साहब? इससे तो यही बेहतर है कि आंख के अंधे और कान के बहरे और मुंह से गूंगे होकर शांति से क्लर्की करके अपना और अपने परिवार का पेट भरा जाय।" और उसने एक प्रश्नसूचक दृष्टि डाली मैनेजर पर। ''राजू तुम रियली जीनियस हो। हम तुम्हें अपनी फर्म में नौकरी देने को तैयार है मगर तनख्वाह का....."और मैनेजर रूक गया। वह पढऩा चाहता था कि राजू के मुंह पर क्या लिखा है।
''सच! ओह, थैंक्स मैनेजर साहब। आप केवल एक क्लर्क की उचित तनख्वाह ही दीजिए। क्या यह कम खुशी की बात है कि आपने मुझे इस काबिल समझा।" और राजू कुर्सी पर संभलकर बैठ गया। राजू सोचने लगा कि छोटी-छोटी ट्यूशनों के लिये दिन-रात एक करने से तो एक जगह काम करना ज्यादा अच्छा है, और उसके मुंह से निकल गया-''ओ.के सर।" ''अच्छा तो कल से ही काम पर आ जाओ। सुबह दस बजे आना है।" और मैनेजर उठ गया। और वह सोचने लगा एम्पलायमेन्ट एक्सचेंजों की खाक छानने से तो यह अच्छा ही रहेगा। और वह नमस्ते कहकर कमरे से बाहर निकल गया।
मैनेजर खुश था कि क्लर्की की तनख्वाह में एम.एस.सी.पास लड़का मिल गया और राजू सोच रहा था कि चलो पेट की ज्वाला तो बुझ जायेगी। और वह सोचने लगा लोग क्लर्क को बड़ी नफरत की निगाह से देखते हैं। और बाबूजी कहकर उपहास करते हैं। मानो वह क्लर्की नहीं कर रहे कोई गुनाह कर रहे हो। और राजू दुनिया की तंगदिली और संगदिली पर मुस्करा दिया। आप ही बतायें ऐसे समय में क्लर्क होकर हमने क्या कोई गुनाह किया है, जो लोग हमें उपेक्षा से देखते हैं। (विभूति फीचर्स)