हिंदी कविता - रेखा मित्तल
Nov 28, 2024, 21:43 IST
वक्त ही कहां मिला
सरकती गई उम्र
तमाम जिम्मेदारियों में
कब दबे पाँव जिंदगी
रेत की तरह फिसल गई
अपने बारे में सोचने का
वक्त ही कहां मिला
अब बचे नहीं मेरे ख़्वाब
मेरी इच्छाएं, आकांक्षाएं
जीवन की सांझ हो चली
उगता सूरज कब ढलने लगा
यह निहारने का
वक्त ही कहां मिला
वो नादानियां, वो अल्हड़पन
छोड़ आई कहीं बहुत पीछे
ग़म को छुपा सीने में
मुस्कुराना सीख लिया मैने
अपने चेहरे पर आई सिलवटों
को देखने का भी
वक्त ही कहां मिला
राग-अनुराग नहीं आया
मेरे आंचल में
अपना बनाने की कोशिशें
तमाम बेकार हो गई
चंचलता कब बदल गई
उदास,खामोशियों में
यह विचारने का भी
वक्त ही कहां मिला
अब तो तकलीफ़ भी नहीं होती
किसी की बेवफाई से
आंसुओं ने भी आंखों में ही
रहना सीख लिया
समय से पहले ही
समझदार बन गई मैं
अपनों को पहचानने का
वक्त ही कहां मिला
- रेखा मित्तल, चंडीगढ़