होली - सुधाकर आशावादी

 

होली पर हर नया तराना अच्छा लगता है,
जो चिढ़ते हों उन्हें चिढ़ाना अच्छा लगता है।

सकुचाए सिमटे से रहते जो घर-घर में,
उनको घर से बाहर बुलाना अच्छा लगता है।

बहुत दिनों से चाह मिलन की हो जिनसे,
होली पर उनके घर जाना अच्छा लगता है।

रिश्तों की मर्यादाएं बंधन सी अब लगती है,
बंधन से छुटकारा पाना अच्छा लगता है।

होली का हुड़दंग देखती जो छज्जे से,
उस गोरी से नैन लड़ाना अच्छा लगता है।

रिश्ते में लगती जो भैया की साली,
उसके गालों रंग पर लगाना अच्छा लगता है।

शर्म हया की बात करो न तुम अब तो,
खुलकर हंसना और हंसाना अच्छा लगता है।

पता नहीं भंग पी है या थोड़ी मय पी,
बिना पंख ही उड़ते जाना अच्छा लगता है।

छेड़छाड़ और मूर्ख बनाने की चाहत,
हुड़दंगी हर नया बहाना अच्छा लगता है।
- सुधाकर आशावादी, ब्रह्मपुरी, मेरठ (विनायक फीचर्स)