भूख - सुधीर श्रीवास्तव
वो क्या जाने भूख की अहमियत,
जो एक वक्त भी भूखा नहीं रहा,
भूख का दंश क्या होता है ?
उससे पूछिए जो एक-एक रोटी को तरसता है।
उससे पूछिए जिसने एक-एक रोटी के लिए,
धूप छांव, जाड़ा,गर्मी, बरसात ही नहीं
दिन और रात झेला है।
एक-एक अन्न के दानों का महत्व,
हम आप कहाँ समझते हैं,
खाते कम और बर्बाद ज्यादा करते हैं,
कूड़ेदान ही नालियों में फेंकते हुए नहीं झिझकते हैं।
किसी भूखे को एक रोटी देते हुए
हमारे प्राण निकलते हैं,
इतना ही नहीं हम उन्हें दुत्कार भी देते हैं,
उनको अपमानित करने में बड़ा सुकून पाते हैं।
यह और बात है कि उससे ज्यादा अन्न,
तो हम अपनी थालियों में छोड़ देते हैं,
और कूड़ेदान, नालियों में फेंक देते हैं।
ऊपर से दंभ इतना कि हम तो अपना ही फेंकते हैं,
किसी और से तो नहीं मांगते हैं।
पर यह दंभ नहीं पाप है जनाब,
एक एक दाने के पीछे किस-किस का
कितना अथाह श्रम लगा है,
उस दाने को उगाने के लिए किसान ने क्या कहा है?
धूप छांव, जाड़ा गर्मी बरसात
अपने तन-मन पर झेला है।
अपनी सुख सुविधाओं को दरकिनार किया है,
बदले उसे मिला क्या है?
यह समझना हमारे लिए कठिन लगता है,.
क्योंकि हममें कीमत चुकाने का बूता है,
पर यहीं हम आप ग़लत हो जाते हैं,
एक भी दाना जो हम आप बर्बाद करते हैं,
यकीन मानिए बड़ा पाप करने के साथ,
माँ अन्नपूर्णा का भी अपमान करते हैं।
भूख का उपहास कर रहे हैं,
पर हम आप यह भूल रहे हैं,
कि आने वाले कल के लिए,
अपने भूख की नींव हम खुद ही रख रहे हैं।
इसका उदाहरण हम सब रोज देख रहे हैं,
सब कुछ होते हुए भी अन्न से वंचित हो रहे हैं,
कभी विवशता, तो कभी समयाभाव,
तो कभी बीमारी आड़ में भूखा रहने और
एक-एक रोटी, एक-एक दाने के लिए तरस जा रहे हैं।
फिर भी हम इतने बेशर्म हो गये हैं,
कि भूख का दर्द समझना ही नहीं चाह रहे हैं,
अन्न की अहमियत न तो खुद समझ रहे हैं,
और न अपने बच्चों, परिवार या किसी और को,
समझाने का कोई प्रयास कर रहे हैं।
क्योंकि हम खुद भूख की परिभाषा,
समझना ही नहीं चाह रहे हैं,
शायद घमंड में जी रहे हैं,
अन्नपूर्णा का अपमान और अन्न की बर्बादी,
अपना अपना जन्म सिद्ध अधिकार मान रहे हैं।
- सुधीर श्रीवास्तव, गोण्डा, उत्तर प्रदेश