कविता (गर्मी का प्रकोप) - मधु शुक्ला

 

गर्मी के बढते प्रकोप से, जीव जगत बैचैन विकल है।
मानसून का आगम ही अब, इस संकट का उत्तम हल है।

जन जीवन है अस्त व्यस्त अति, तापमान के बढ़ते क्रम से।
चिंतित हैं मानवतावादी, उष्मा के नित चढ़ते क्रम से।

तरस रहा है जन जीवन क्यों, एक बूँद बारिस की खातिर।
तड़पाने में प्रखर रश्मियाँ, आज हुईं क्यों इतनी शातिर।

जब जबाव हम ढूँढेंगे तो, आसपास उत्तर पायेंगे।
समझदार जन आगे बढ़कर, वृक्षों का वंश बढ़ायेंगे।
— मधु शुक्ला, सतना,  मध्यप्रदेश