कविता - जसवीर सिंह हलधर

 

निकली मैं शम्भु जटाओं से ।
भूधर की बर्फ लटाओं से ।।
मंदाकिनी ,सोन, ध्रुव नंदा ।
भागीरथी ,पिंडर की वृंदा ।।

सारी हिमगिरि  की निर्झरणी ।
मानव जीवन की बैतरणी ।।
कविता हम शैल महाकवि की ।
पिघली हैं देख किरण रवि की ।।

सारी हिमगिरि की इन्द्रपरी ।
पर्वत से निकलीं आन झरी ।।
देवो ने विलय किया हमको ।
गंगा जी नाम दिया हमको ।।

ऋषियों ने ऐसी फुसलाई ।
सागर दर्शन को अकुलाई ।।
भगीरथ ने अनुरोध किया ।
गिरि ने पुरजोर विरोध किया ।।

लहराती भाग चली नीचे ।
इठलाती भाग चली नीचे ।।
चट्टानों से भी टकराई ।
लड़ती भिड़ती नीचे आई ।।

भूधर क्रोधित आँखें मींचे ।
सागर मुझको नीचे खींचे ।।
जननी गृह छोड़ दिया मैंने ।
रुख अपना मोड़ दिया मैंने ।।

हरि ने मुझको पहचान लिया ।
हर हर गंगे का मान दिया ।।
अपना ये रूप विशाल लिए ।
मदमस्त भुजंगनि चाल लिए ।।

मुट्ठी में तीनों काल लिए ।
भोजन का पूरा थाल लिए ।।
शंकर को पीछे छोड़ दिया ।
कंकर पत्थर को तोड़ दिया ।।

पत्थर को रेत किया मैंने ।
ऊषर को खेत किया मैंने ।।
धरती की भूख मिटाने को ।
जगती की प्यास बुझाने को ।।

वन क्षेत्र किनारों पर पनपे ।
रण क्षेत्र कछारों पर पनपे ।।
सब गांव ,नगर आवाद किये ।
मानव के फूटे भाग्य सिये ।।

युग युग आयाम समाये हैं ।
कारण परिणाम समाये हैं ।।
ये मानव समझ नहीं पाया ।
दूषित कर दी मेरी काया ।।
 - जसवीर सिंह हलधर , देहरादून