शेष-अशेष (कहानी) - डॉ. सुधाकर आशावादी

 

Utkarshexpress.com - गोधूलि बेला में चरवाहे अपनी गाय, भेड़ों को चराकर घर की ओर लौट रहे थे, किसान दिन भर की कड़ी मेहनत के उपरांत हल-बैल लेकर खेतों के बीच बनी चकरोड पर आ गए थे, बैलों के गले में बंधी घंटियां मधुर संगीत प्रस्तुत कर रही थीं, ऐसे में भला सूरज भी क्यों पीछे रहता, उसने भी धरा पर विचरते अपने इन्द्रधनुषी घोड़ों को बुलाकर अपने अस्तबल में बांधने की पूरी तैयारी कर ली। धरा पर अंधेरे की पहली लकीर ने अपना अस्तित्व दर्शाया, धुंधलका छाने लगा, गांवों में अंधेरे से लडऩे के लिए मिट्टी के तेल की बाती अपनी ड्यूटी पर मुस्तैदी से तैनात हो गई।
सूरज ने भले ही अपने घोड़े अस्तबल में बांध लिए, किन्तु धरा पर उसकी उष्णता कम न हुई, हवा पर पहरा जो बैठा दिया गया था। ऐसे में प्रकृति से आंख मिलाने का दुस्साहस सभ्यता के कुछ अलम्बरदारों ने कर लिया। सूरज की उष्णता से बचने के लिए कृत्रिम शीतल हवाओं की व्यवस्था कर ली।
दड़बेनुमा दरवाजे के भीतर भव्य पंडाल सजा दिया गया, बाहर की उष्णता भरी हवाओं के चंगुल से बचाने हेतु वातानुकूलित यंत्र से पंडाल के भीतर घुसते ही शरीर में जैसे फुरफुरी-सी स्पंदित होने लगी, धन के बल पर सुविधाएं खरीदने वालों का जमघट बढऩे लगा, पंडाल में देह को सुविधामयी परिस्थितियां सौंपने वाले उपकरणों की भरमार जो थी, नारी की सबसे बड़ी कमजोरी उत्कृष्ट गहनों की दुकान भी चमचमा रही थी, जिसमें उपलब्ध गहनों की कीमत हजारों की परिधि लांघकर लाख से ऊपर के स्तर तक पहुंच चुकी थी। पंडाल में मेले जैसा भव्य दृश्य उपस्थित था, समय को दरकिनार करते हुए पंडाल के भीतर प्रात:, दोपहर अथवा संघ्या के चिन्ह नजर नहीं आ रहे थे।
पंडाल के भीतर अंतर्राष्ट्रीय कम्पनियों के स्टाल अपने-अपने उत्पाद आरक्षित करके उनकी डिलीवरी शीघ्रातिशीघ्र उपभोक्ता के घरों में देने हेतु आश्वस्त कर रहे थे। बाजार का आधुनिकीकरण गांव, शहर के हाट-बाजार को मुंह चिढ़ाता प्रतीत हो रहा था, कोई मोल-भाव की गुंजाइश ही नहीं, जितनी छूट दी जा सकती थी, उसका प्रतिशत खुलकर बताया जा रहा था। ग्राहकों में कुछेक नवधनाढ्य ऐसे भी थे, जिन्हें एक बार वस्तु पसन्द आ गई, कीमत बिना देखे ही ऑर्डर बुक कराने में पीछे नहीं थे।
पंडाल में मेला सप्ताह भर का था, अंतिम दिन मेला समापन की ओर था, सो अड़ोसी-पड़ोसी मेले की खूबियां सुनकर उसमें घूमने के लिए उत्सुक थे, मेला समापन पर कुछ वस्तुओं का भाव मंदा होना भी आकर्षण का कारण होता है। माल की ढुलाई ही इतनी महंगी हो जाती है कि सस्ते में माल बेचकर गन्तव्य हेतु प्रस्थान करने में ही कुछ दुकानदार अपना भला समझते हैं। आदमी की सोच भी उसे कितना पारखी बना देती है... छोटे से छोटे समीकरणों में वह अपना मुनाफा आंकने लगता है.. बिना खरीददारी के भी नफे-नुकसान की गणना करने में पीछे नहीं रहता।
उस दिन भी ऐसा ही था, महिलाएं घरों से पर्स भरकर लाईं थीं, कुछ व्यवसायी भी थे, जिनकी जेबों में हजार-हजार व पांच-पांच सौ रुपये के नोटों की गड्डियां थीं, महंगी चमचमाती लक्जरी कारें, महंगे दुपहिया मेले में आने वालों का स्टेट्स सिंबल जताने में समर्थ थे। पंडाल में उपभोक्ताओं के रूप में अधिकांश ऐसे परिवार थे, जिन्हें महानगर की शान कहा जाता है। कुछेक बड़े व्यवसायी, कुछ उद्योगपति, कुछ काली कमाई वाले अफसरों की पत्नियां। सामान्य परिवारों से जुड़े लोग इक्का-दुक्का ही थे, वह मेले की चकाचौंध देखने के लिए ही पंडाल में उपस्थित थे।
पंडालों का निर्माण बड़े मैदान के एक छोर पर छोटे से स्थान में किया था, तिकोने आकार में तीन पंडाल बनाए गए थे। दो पंडाल आमने-सामने त्रिभुज की दो भुजाओं के समान, दोनों पंडालों के पीछे आधार रेखा की तरह एक पंडाल लगाया गया था। दाएं-बाएं के दोनों पंडालों में उपभोक्ता सामग्री से सज्जित स्टाल थे, जबकि दोनों को जोडऩे वाले पंडाल में खाद्य सामग्री के पंडाल थे, जिसमें चायनीज, फास्टफूड तथा आधुनिकता व्यक्त करते महंगे से महंगे खाद्य पदार्थ थे। खाद्य पदार्थ में विशेषकर डोसे, पावभाजी और चाउमीन के स्टाल पर खासी भीड़ थी, मेले के आकर्षण में इनका योगदान भी कम न था, चाउमीन कारीगर बार-बार आग तेज करके चाउमीन तैयार करता, हाथों हाथ उसकी बिक्री हो जाती, पाव सेंकने वाले कारीगर को भी होश नहीं मिल रहा था, डोसे की वैरायटी के लिए तीन तवे पूरी गति से कत्र्तव्य पूरा करने में जुटे थे। पेपर डोसा, मसाला डोसा, पनीर डोसा, प्लेन डोसा सभी की मांग जारी थी, मेले के समापन की तैयारी की जा रही थी, मेला टिकट के कूपन एकत्र कर लिए गए थे, जिन्हें कलश में डालकर भाग्यशाली विजेताओं के लिए इनाम निकाले जाने की योजना थी, मेला आयोजक अपनी उपलब्धि पर फूले नहीं समा रहे थे, क्योंकि अपेक्षा से अधिक दर्शक मेले में जुटा लिए गए थे, अंतर्राष्ट्रीय कम्पनियों के स्टाल जहां खासा बिजनेस करने में सफल हो गए थे, वहीं स्थानीय विशिष्ट व्यापारिक प्रतिष्ठानों के स्टाल भी उनसे किसी मायने में कम नहीं रह गए थे, मेला अपने उद्देश्यों पर खरा जो उतर रहा था।
घड़ी ने संध्या के छह बजाए, यकायक खाद्य पदार्थ वाले पंडाल में भगदड़ मची, चाउमीन के स्टाल पर आग को घटाने-बढ़ाने के फेर में आग की लपट ऊंची उठी कि पंडाल के पिछले भाग में जा लगी, इससे पहले कि उस पर काबू पाया जाता, उसने विकराल रूप धारण कर लिया। बाहर की तपिश और भीतर की आग जैसे मिलकर एकाकार हो गई। लोहे के मजबूत ढांचे से चिपकी पॉलीथिन ने आग का भयावह रूप प्रस्तुत किया, इससे पहले कि दर्शक कुछ समझ पाते, पॉलीथिन के जलते हुए टुकड़े अग्निदानव के समान दर्शकों पर गिरने लगे। जो जहां था, जैसा था, वहीं धू-धू कर जलने लगा तथा कोयला बन गया, तिस पर भी भगदड़ मची। निकासी द्वार की जानकारी न होने पर कोई रास्ता नहीं सूझ रहा था, जिसको जहां राह दिखाई दी, उसने वहीं दौड़ लगा दी। भले ही उसे खुली हवा की जगह मौत मिली, अग्नि दानव क्रूर काल बनकर वातानुकूलित पंडालों को अग्निकुंड में परिवर्तित कर चुका था। आकाश पर काला धुआं फैलता चला गया।
कुछ उपभोक्ताओं को चीखने तक का अवसर नहीं मिल सका, समूचे पंडाल में हाहाकार तथा स्वयं को बचाने का जतन जारी था। साथ आए मित्र, पत्नी व बच्चों की चिन्ता से पहले अपने शरीर को बचाने में सभी भाग रहे थे। आग का ऐसा मंजर महानगर ने कभी नहीं देखा था। मेला पंडाल में आग की खबर पलक झपकते ही विश्व भर में फैल गई। टी.वी. कैमरामैन आग के दृश्यों को विविध आयामों से अपने -अपने कैमरों में कैद करके अपनी गुणवत्ता और दर्शकों तक सबसे पहले पहुंचने में जुट गए। दृश्य ऐसे कि देखते ही मन विचलित हो जाए। अधजली लाशें, कुछ कोयला बनी मानव देह, कुछ अंग-भंग छितरे मांस के लोथड़े, हंसते-खेलते परिवार अग्निकुण्ड के तंदूर में जैसे भून दिए गए हों।
यकायक पंडाल स्थल पर अंधेरा छा गया, विद्युत आपूर्ति करने वाले जनरेटर बंद कर दिए गए थे। वैसे भी पंडाल के भीतर बिजली के बिछे तार फुंककर काले पड़ गए थे। पंडालों के भीतर शीतलता परोसने वाले एयरकंडीशनर जो प्रत्येक दस फीट की दूरी पर थे, धू-धू कर जल चुके थे। मात्र ऊपर के खोल ही आग की त्रासदी को व्यक्त करने हेतु काले पड़ चुके थे।
पुलिस, प्रशासनिक अधिकारी और राजनेता तुरन्त हरकत में आ गए। संवेदना व्यक्त करने वालों में जैसे होड़-सी लग गई, सबसे पहले सत्तापक्ष का मंत्री पहुंचा, इतनी जल्दी कि जैसे आग लगने से पहले ही आग की भनक उसके कानों में पहुंच गई हो, फिर विपक्ष का विधायक पहुंचा। गोया इससे अधिक सटीक अवसर जनता की सहानुभूति बटोरने के लिए उसके पास न हो। पुलिस और प्रशासन के वरिष्ठ अधिकारी अपने घरों में बैठे रहे, विचारमग्न थे कि अग्निकुंड की आग से वह स्वयं को कैसे बचाएं। हादसा हृदय विदारक था। अग्नि समाधि लेने वालों की संख्या जैसे गिननी कठिन पड़ रही हो। अग्निकांड में हताहतों की संख्या भी जैसे अनुमान की परिधि से बाहर हो चुकी हो। फिर न जाने पुलिस व प्रशासनिक अधिकारियों ने बचाव का रास्ता कैसे निकाला, कुछ कठोर निर्णय तुरन्त लिए गए। बचाव कार्य के लिए दुर्घटना स्थल पर आए समाजसेवियों को पुलिस ने खदेड़कर मंडपों से बाहर कर दिया। अंधेरा घिरने लगा था। क्षेत्र की विद्युत आपूर्ति बन्द कर दी गई। बचाव कार्य में अवरोध उत्पन्न हो गया, फिर क्या था आनन-फानन में घटनास्थल पर मलवा साफ कराने का उपक्रम प्रारंभ कर दिया गया। टी.वी. चैनलों के कैमरे शांत हो गए। अंधेरे में बचाव कार्य के दृश्य कैमरे की नजर से दूर कर दिए गए। अग्नि से हताहत लोग जो मलबे में दब चुके थे न जाने कहां चले गए, उन्हें आसमान निगल गया या वे धरती में समा गए, इसकी भनक तक किसी को न लगी।
अपनी पत्नी के साथ विद्युत उपकरण खरीदने गया विजय भगदड़ में रश्मि को साथ न रख सका। रश्मि भीतर चीखती रह गई और वह बेतहाशा दौड़ता हुआ मौत की गिरफ्त से बाहर आ गया, आनन फानन में वह घर पहुंच गया और वहीं रश्मि की प्रतीक्षा करने लगा, यही हाल अन्य अनेक लोगों का भी था। वृद्ध दंपति रामनाथ और उनकी पत्नी जानकी मेले में साथ ही गए थे, आग की लपटों में दोनों ने एक-दूसरे का हाथ मजबूती से पकड़ रखा था। ऊपर से पॉलीथिन का जलता हुआ लावा जैसे ही गिरा, जानकी ने स्वयं को आगे कर दिया, उसका शरीर धू-धू कर जलने लगा। अब उसने रामनाथ बाबू को अग्नि से बचाने के लिए जोरदार धक्का दिया, किन्तु रामनाथ भी हताहत हो चुके थे। सुध-बुध खो बैठे सो अलग, जानकी अन्तिम समय तक अपने पति के प्रति समर्पिता बनी रही, स्वयं के प्राणों की परवाह न करके पति के प्राण बचाने को आतुर।
सुधांशु का हरा-भरा परिवार ही हादसे की भेंट चढ़ गया, घर का ताला लगाकर सपरिवार मेले की चकाचौंध में ऐसे समाए कि मौत के चंगुल से स्वयं को न बचा सके, घर में कोई दीप जलाने वाला भी शेष नहीं बचा। कितने मन से आलीशान फ्लैट खरीदा था तथा एक-एक सामान अपनी पसन्द से लाकर करीने से सजाया था। किसे खबर थी कि ये खुशियां चन्द दिनों की मेहमान हैं। काल की क्रूर निगाहों में सुधांशु की खुशियां अखर रही थी। दौलत से खुशियां खरीदने की चाहतों का एक अंजाम यह भी होता है, किसी ने विचारा तक नहीं था।
पंडाल की अग्नि में भुनते बच्चों की चीखें किशोर को द्रवित कर गईं। वह पंडाल से सुरक्षित बाहर आ गया था किन्तु पंडाल का भयावह दृश्य उसके अन्तस को भिगो गया। क्षण भर में ही उसने कुछ निश्चय किया और अग्नि कुंड में घिरे बच्चों को खींचकर बाहर निकालने लगा। यही हाल गरिमा का भी था, उसने भी स्वयं की परवाह न करके आठ दस लोगों को मौत के चंगुल से बचा लिया, किन्तु यही प्रयास उनके लिए जानलेवा सिद्ध हुआ। कुछ कर गुजरने की तमन्ना में वह स्वयं इतने हताहत हो गए कि बच न सके, शेष रह गईं उनकी शौर्य गाथाएं, उनका अदम्य साहस और जीवटता।
भावनाएं, संवेदनाएं, प्रेम, विरह, त्याग जैसे शब्द पंडाल में लगी आग की विभीषिका से जूझने वाले चरित्रों के लिए उभर आए। वहीं कुछ और दृश्य उभरे, मौके का लाभ उठाने वाले तत्व अग्नि तांडव से त्रस्त देहों के प्रति भी क्रूर बन गए। जले शरीरों की अंगुलियां काटकर अंगूठी निकाली, गले में पड़े मंगल सूत्र खींच लिए गए, कानों के कुंडल, हाथ के कंगन और पैर की पायल खरोंचते हुए उन्हें लज्जा नहीं आई। बचाव कार्य में जुटे कुछ सुरक्षाकर्मी भी सक्रिय हो उठे, उनके लिए जैसे कमाई का इससे अचूक अवसर कोई था ही नहीं। घटनास्थल पर ज्वैलरी की दुकान का बॉक्स देखते ही एक अधिकारी की आंखें चमक उठीं, वह बाक्स को उठाकर एक ओर ले गया तथा खाली करके अपनी जेबें भरने में जुट गया।
मलबे के ढेर में क्या कुछ दफन नहीं था, उसके लिए कुछ शातिर दिमाग सक्रिय हो गए।
नगर निगम की कूड़ा गाड़ी में मलबा भरकर अंधेरे में भेज दिया गया। मलबा भरने वाली मशीन के मजबूत दांतों ने यह नहीं देखा कि मलबे में कुछ हताहत जीवन मृत्यु से संघर्ष कर रहे हैं, अग्नि की सड़ांध से उनकी सांसें बंद होने के कगार पर हैं। दम घुटता जा रहा है। लौह मशीनों से संवेदनाओं की अपेक्षा भला कैसे संभव थी। जब संवेदनाओं के हिमायतियों की संवेदना ही बर्फ पड़ चुकी हों। मलबे को दूर कहीं ले जाकर खंगाला गया, मानव अंगों की छितराई स्थिति का भरपूर लाभ उठाया गया, हीरे की अंगूठियां, रत्न जडि़त आभूषण, आग की भेंट चढऩे से बची कुछ करैंसी, पलक झपकते ही सालों तक जीवन-यापन का जुगाड़ बनता जो प्रतीत हो रहा था।
अग्निकांड मानव में व्याप्त दानवता एवं युवा जीवटों की मानवता को जहां व्यक्त करने में समर्थ था, वहीं लाशों पर राजनीति करने वालों की कोई कमी नहीं थी। सभी अपनी-अपनी पुरानी रंजिशें निभाने को आतुर थे, कोई अग्निकांड के लिए प्रशासन को सीधे जिम्मेदार ठहरा रहा था तो कोई सत्तापक्ष के नेताओं को इसमें घसीट रहा था, गोया स्वयं ही माचिस लगाकर उन्होंने मेला पंडाल को अग्निकुंड में तब्दील किया हो। सप्ताह भर तक लोग संवेदनाओं को टी.वी. चैनलों पर मुखरता से व्यक्त करते देखे गए। अधिकारी बलि का बकरा भी बने, उनकी पिटाई भी हुई, ऑफिसों में तोड़-फोड़ भी... कुछेक सामाजिक संस्थाओं ने मोमबत्तियां जलाकर मृतकों की आत्मा की शांति के लिए प्रार्थनाएं भी कीं, किन्तु अग्निकुंड में देह समर्पित करने वालों तथा हताहतों के पास जाकर उनकी खैर-खबर लेने की चेष्टा किसी ने नहीं की।
क्योंकि जली-फुंकी देहों से उठने वाली सड़ांध उन्हें अस्पतालों से दूर ही रहने हेतु विवश कर रही थी। वैसे भी उन्होंने यही पाठ अधिक पढ़ा था कि कुछ करो या न करो प्रदर्शन करके यह अवश्य जता दो कि मानवीयता एवं संवेदनाएं उन्हीं में कूट-कूट कर भरी हैं।
अग्निकुंड में भस्म देहों की अधिकाधिक संख्या में बढ़ोतरी के लिए अधिकांश वह लोग भी जुड़ गए थे, जिनके अपने परिचित बरसों से लापता थे। लावारिस देहों को परिचित की देह बताकर मुआवजा हड़पने के षड्यंत्र भी प्रारंभ हो चुके थे। एक अग्निकुंड जहां अनेक लोगों को असमय ही मौत के आगोश में सिमटा गया था। वहीं शेष बचे लोगों की आंखों में अनेक आयाम चमक रहे थे कि जैसे भी हो मृत देहों का सौदा करके अधिकाधिक मुआवजा वसूला जा सके।
प्रमुख व्यवसायी विजय जो अपनी पत्नी को भीड़ में छोड़कर जान बचाकर भागा था, अब अपनी पत्नी के प्रति अत्यधिक प्रेम का प्रदर्शन कर रहा था। मानवाधिकार आयोग, जिलाधिकारी एवं अनेक अफसरों के यहां प्रदर्शन कर रहा था, ताकि सभी को कठघरे में खड़ा कर सके, गोया उसकी पत्नी को खोज लाने की एकमात्र जिम्मेदारी प्रशासन की ही हो तथा पत्नी को भीड़ में खो देने पर उसका कोई कसूर न हो।
सभी के अपने-अपने तर्क और अपनी-अपनी व्याख्याएं थीं। अग्निकुंड अनेक सवालों, कयासों और अफवाहों को जन्म देकर अपने ही स्थान पर अडिग था।
अग्निकुंड का मजबूत लौह ढांचा यह जताने में समर्थ प्रतीत हो रहा था कि प्रकृति के सम्मुख मानव की महत्वाकांक्षाएं सदैव बौनी सिद्ध हुई हैं तथा बौनी ही रहेंगी...। (विभूति फीचर्स)