दर्द आभूषण बने हैं - सुनील गुप्ता

 

दर्द
बन आए आभूषण
नित चले गहराते हैं ये ज़ख्म 
समझ ना आए अब क्या करें.....,
कह ना पाएं दर्द यहाँ अपनों से हम !!1!!
बहुत
समझाया स्वयं को
और करी कोशिशें लाख सहने की
पर, जब उठने लगी टीस गहरी........,
तो, नहीं होती बातें सहन ये अपनों की  !!2!!
नित्य
सजती संवरती हूँ
और आने की उनके तकती हूँ राह
पर, अंत में थक हार के बैठ जाती.......,
और सुनती दिल से निकलती हरेक आह  !!3!!
सोचूँ
जितना उतना तड़पूँ 
मन ना लगे किसी भी काज में  !
अब देख इन सुंदर गहनों आभूषणों को.....,
नित होने लगी है वितृष्णा तन मन में !!4!!
पूछती
हूँ स्वयं प्रश्न 
और खुद पे ही उठाती कई एक सवाल  !
क्या चली गयी थी मेरी मति मारी.....,
जो रोक ना पायी ये खनकती चूड़ियाँ पायल!5!
बंजर
बनी मन भूमि
अब नहीं बचा कोई रुप सौंदर्य तेज !
इस सूनी उजड़ी मरुस्थली मनबस्ती में....,
कहाँ से सजाऊँ फिरसे यौवन की गंध सेज !!6!!
स्थिर
आँखों से तकती
घंटों बैठी यूँ ही खोयी सी रहूँ शून्य में  !
अब दर्द की सरिता बन चुकी इन नयनों ने.....,
कर दिया है मुझे खुद तकदीर के हवाले !!7!!
-सुनील गुप्ता (सुनीलानंद), जयपुर, राजस्थान