जिंदगी - रेखा मित्तल

 

दौड़ती भागती हुई जिंदगी
हर काम खत्म करने की जल्दी
बच्चो की पढ़ाई से शादी तक
अपनी हर जिम्मेदारी को 
पूरा करने की अधूरी कोशिश
आसपास सभी दौड रहे है
यही तो हैं आजकल जिंदगी
पर वास्तव में हम जीना ही भूल गए
अपने सपने, अपनी खुशी
सब कही पीछे छूट गया
कभी इन्हीं सपनों को पूरा करने
गांव छोड़ शहर आया था
यह मेरी जिंदगी है
यही बोलकर बाबूजी से लड़ा था
आज फिर दोराहे पर खड़ा हूं
पीछे मुड़कर देखता हूं
अधूरे सपने, नमुकम्मल इश्क
मां की कुछ अधूरी इच्छाएं
जीने पूरा करने का वादा किया था
जब गांव छोड़ शहर आया था
आगे बढ़ने की चाह में
बहुत कुछ पीछे छोड़ आया हूं
बहुत गुस्सा आया जब
बेटे ने बोला मेरी जिंदगी है
मुझे अपना कैरियर बनाना है
और वह विदेश को निकल गया
तिलमिला गया मैं अंदर तक
पर इतिहास खुद को दोहरा रहा है
बस किरदार बदल गए हैं
मैं गांव की पगडंडी छोड़
शहर की ओर आया था
वह शहर की पक्की सड़क छोड़
विदेश की ओर चला गया है
बहुत कुछ पाने की चाह में
कुछ अनमोल पीछे छूट जाता है
मुझे देखने को तरसती
मां बाबूजी की पथराई आंखें
चाहते थे केवल मेरा स्नेहिल स्पर्श
पर काम की व्यस्तता के कारण
बहुत कम मिल पाया सबसे
हर बार चंद रुपए भेज सोचता था 
उनकी मदद तो कर रहा हूं
आज अहसास हुआ, नहीं चाहिए थे
उन्हें रुपए
उन्हें तो मेरा साथ चाहिए था।
- रेखा मित्तल, चंडीगढ़