“मेरा पता”=== डा. अंजु लता सिंह
“मेरा पता”
जिंदगी देखती है
कनखियों से मुझे
मिलती रहती है
पथ पर
यदा-कदा
मैं भी
दूर से निहारती
अभिभूत सी
हर बार लुभाती
उसकी हर इक अदा
नजरों से ही
करती थी
कोमल सी
एक खता
पूछती थी मुझसे
घर का मेरा पता
शैशव में
चुल्लुओं से
उछाली कई पुचकार
नादां था जिगर मेरा
कर लीं सभी स्वीकार
यौवन में दिखा आंख
लगाती रही फटकार
फिर भी वो चाहती थी
सदा हो मेरा दीदार
“मेरा पता”मैं भूल गई
मैंने बताया
वो पल कभी फिर लौटकर
वापस नहीं आया।
सोपान पर चढ़ती रही
यह उम्र दीवानी
कृशकाय तन पे झुर्रियों ने
चादरें तानी
बैसाखियों पर चलके उसे
खूब पुकारा
“मेरा पता”ले लो जरा
जोरों से उचारा
हांफती बैठी रही
मैं मृत्यु के रथ पर
मुसकुराई वो गगन से
वात सी बनकर
मुट्ठियों से फिसलता
जाता “मेरा पता”
जिंदगी मिलती नहीं अब
भूलकर पथ पर
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#स्वरचित छंदमुक्त काव्य सृजन
डा. अंजु लता सिंह
नई दिल्ली