ग़ज़ल हिंदी - जसवीर सिंह हलधर
भूमि है बीमार सी आकाश छोटा हो गया है ।
गोल है भूगोल पर इतिहास छोटा हो गया है ।
हो गया संबंध सीमित फेस बुक मोबाइलों से ,
आदमीयत का मगर परिभाष छोटा हो गया है ।
मंदिरों में दान से औकात मापी जा रही है ,
भक्त का भगवान में विश्वास छोटा हो गया है ।
बात को सीधे तरीके से नहीं कहता जमाना ,
गालियों से वर्ण का विन्यास छोटा हो गया है ।
साल को बारह महीने का कलेंडर बोलता है ,
पर न जाने क्यों यहां मधुमास छोटा हो गया है ।
मूल्य परिवर्तित हुए हैं आदमी के जिंदगी में ,
गृहस्थ का फैलाव है संन्यास छोटा हो गया है ।
भूख रोटी से अधिक अब साधनों की हो गयी है ,
कोठियां तो हैं मगर आवास छोटा हो गया है ।
देश तो आज़ाद है पर मानसिकता में गुलामी,
राष्ट्र भाषा का यहां अहसास छोटा हो गया है ।
रोज "हलधर" लिख रहा है राम जाने अंत क्या है ,
मंच पर अब छंद का अभ्यास छोटा हो गया है ।
-जसवीर सिंह हलधर, देहरादून