नज़र (एक खयाल) - ज्योत्सना जोशी

 
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नादानियों की भी एक उम्र तय होती है,
जो जैसा है उसे वैसा देख लेती है नज़र।
हर शख़्स अपने मयार की जद में है,
धूप के साये को परख लेती है नज़र।
जज़्बाती रिश्तों को कुछ वक्त दिया करो,
कुछ वक्त बाद वो कमज़र्फ आते हैं नज़र।
सागर में कागज़ की कश्ती की सवारी,
अंजाम-ए-वफ़ा तग़ाफ़ुल आये नज़र।
वो कुछ अहद यक़ीन मेरा रहा,
अक्सर ख़ुलूस को झुकानी पड़ी नज़र।
कुछ आदतन कुछ सीरत ही नाज़ुक है,
टूटे शीशे का दरकना सबको आये नज़र।
- ज्योत्सना जोशी , देहरादून

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