आईना - सुनील गुप्ता
(1) " आ ", आईन
कहाँ बचें हैं पाक-साफ़
अपने गिरेबान में तो झाँक के देख लें !
बहुत औरों में ढूंढते हैं कमियाँ.......,
हों अपने से मुक़ाबिल स्वयं को तोललें !!
(2) " ई ", ईमान
धर्म इंसानियत कहाँ बची है
अपने को मनदर्पण में तो उतार लें !
औरों को ख़ूब दिखाए चलता है आईना..,
स्वयं को धरातल पे रख के तो नाप लें !!
(3) " ना ", नापसंद
है गर कोई तुमपे अंगुली उठाए
तुम्हें अपनी शराफ़त का है बहुत गुमां !
पहचानलें अपनी हदों को समय रहते....,
नहीं तो बता देगा औकात कोई वरना !!
(4) " आईना ", आईना
कभी भी झूठ नहीं बोलता
वे तो स्वरूप को सदा सही दर्शाएं !
पर, हम कहाँ उनको देते हैं तरजीह..,
हमतो वही चाहते जो दिल को भाए !!
(5) " आईना ", आईना
सदैव चले दिखलाए है सच
पर, हम तो बनें हैं झूठ के आदी !
ऐसे में एक ही रास्ता बचा दिखता है.,
संभलें, वरना तय है हमारी बर्बादी !!
-सुनील गुप्ता (सुनीलानंद), जयपुर, राजस्थान