तीन बार मारा गया भगतसिंह, राजगुरू और सुखदेव को (शहीद दिवस) - सुभाष आनंद

 
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utkarshexpress.com - भगत सिंह, राजगुरू, सुखदेव का शहीदी दिवस 23 मार्च को मनाया जाता है। शहीद होने का रास्ता उन्होंने स्वयं चुना था। ब्रिटिश सरकार उनसे इतनी नफरत करती थी कि शीघ्र ही उन्हें मारना चाहती थी। भगत सिंह, राजगुरू और सुखदेव को मृत्यु दंड नहीं दिया गया बल्कि उनकी हत्या की गई। एक गलतफहमी यह भी है कि तीनों को संविधान सभा में बम फैंकने के आरोप में मृत्यु दंड दिया गया था। पर सच यह है कि साईमन कमीशन के विरूद्ध शांतिपूर्वक जुलूस निकाल रहे लालालाजपत राय के सिर पर लाठी मारकर उन्हें मार डालने वाले ब्रिटिश पुलिस अधिकारी स्काट से बदला लेने की येाजना बनाई गई थी परंतु गलती से डीएसपी जेपी सार्डंस मारा गया।
23 मार्च 1931 को अंग्रेजों ने आपरेशन ट्रोजन हार्स के नाम से ड्रामा किया। लाहौर जेल के सारे नियम तोड़ते हुए रात्रि 7.11 बजे भगत सिंह और उनके साथियों को फांसी पर चढ़ाया गया, इसके पहले कि उनके प्राण निकल पाते इन तीनों को फांसी के फंदे से उतारकर और लाहौर छावनी के पास तीनों पर गोलियों की बौछार की गई, अगर लाशों का पोस्टमार्टम होता तो अंग्रेजों की घिनौनी हरकत भारतीय जनता के सामने आ जाती, इसीलिए अंग्रेज सरकार ने इन शहीदों का पोस्टमार्टम नहीं करवाया। लंदन के अभिलेखागार में मौजूद दस्तावेजों में यह तथ्य अभी भी मौजूद हैं। भारत सरकार पता नहीं इन दस्तावेजों को मंगाने के लिए प्रयास क्यों नहीं कर रही। 2007 में प्रकाशित एक पुस्तक में इन दस्तावेजों का वर्णन है, जिसमें भगत सिंह और उनके साथियों की मौत और अंतिम संस्कार के बारे में कई प्रश्न उठाए गए हैं। इस पुस्तक के मुख्य स्रोत दिलीप सिंह इलाहाबादी को जो एक समय पं. जवाहरलाल नेहरू के घर में काम किया करते थे। उनके बारे में एक कहानी प्रचलित है कि एक जुलूस में उन्होंनेे नेहरू को थप्पड़ भी जड़ दिया था। यह भी कहा जाता है कि वह स्वंय ब्रिटिश सरकार की जासूसी भी किया करते थे बाद में वह इंग्लैंड चले गए। वहां उन्होंने कुलवंत सिंह नाम के बच्चे को गोद लिया। इलाहाबादी की मृत्यु 1986 में हुई। कुलवंत सिंह ने इस पुस्तक पर जब काम करना शुरू किया तब चौंकाने वाली जानकारियां प्राप्त हुईं। वे ब्रिटिश लाईबेरी लंदन में जाकर दस्तावेज स्वयं देखकर आए थे।
उनके अनुसार आपरेशन ट्रोजन हार्स इसीलिए रचा गया था क्योंकि सांडर्स के वध के कारण पुलिस वाले खासकर सांडर्स के परिवार वाले बहुत आहत थे। इसीलिए इन तीनों क्रांतिकारियों को फांसी पर सिर्फ गर्दन की हड्डी टूटने तक लटकाया गया फिर लाहौर छावनी के पास जिन लोगों ने इन आधा मुर्दा शहीदों पर गोलियां चलाई उसमें से सांडर्स के परिवार वाले भी शामिल थे। सांडर्स की बहन ने गोलियों की बौछार करते हुए कहा मैंने अपने भाई की हत्या का बदला ले लिया है। और तो और यह रहस्य छुपा रहे इसीलिए जिस जल्लाद ने तीनों शहीदों को फांसी पर लटकाया था उसे भी फौरन मार डाला गया।
इन शहीदों के इंकलाब जिंदाबाद के नारे ने सोई हिन्दुस्तानी कौम को जगा दिया। उनकी लोकप्रियता से अंग्रेज लोग भयभीत थे। सरकार तीनों शहीदों को फांसी पर लटकाने के पश्चात भी उनका नामोनिशान मिटा देना चाहती थे, ताकि उनकी विचारधारा जनता की विचारधारा न बन सके, इसीलिए तीनों शहीदों की 24 मार्च की बजाय 23 मार्च साय 7.11 बजे फांसी दी फिर गोलियों से हत्या कर लाहौर सेंट्रल जेल की पिछली दीवार तोड़कर शवों के टुकड़े करके लाहौर-फिरोजपुर हुसैनीवाला के जंगलों में मिट्टी का तेल डालकर जला दिया गया। उनकी राख और हड्डियों को सतलुज नदी में बहा दिया गया। इसके बावजूद फिरोजपुर के नवयुवकों ने शवों को जलाने का स्थान तलाश लिया। अंग्रेज सरकार तो शहीदों का नामोनिशान तक मिटाना चाहती थी। 
पाठकों की जानकारी के लिए इस बात का वर्णन करना अति जरूरी है कि 1947 में पाकिस्तान की स्थापना के पश्चात रेड किलिफ अवार्ड के अनुसार हुसैनीवाला का समाधि स्थल पाकिस्तान को दे दिया गया, ताकि भगत सिंह और उनके साथियों को भारतीय जनता भूल जाए। दोनों देशों के बीच ऐसी लकीर खीचीं कि तीनों शहीदों का समाधि स्थल पाकिस्तान का हिस्सा बन गया। जिसके विरूद्ध भारतीय जनता 15 वर्ष तक प्रदर्शन करती रही और कहती रही कि गुलामी के दिनों में प्रथम बार इंकलाब जिंदाबाद का नारा राष्ट्र को देकर सिर कटाने वाले शहीदों की समाधि के बिना हमारी आजादी अधूरी है। परिणामस्वरूप पं. जवाहरलाल नेहरू के प्रयासों से फजिल्का के सतलज दरिया पर बने सुलेमान का हैडवक्र्स का पुल पाकिस्तान को देकर 1962 में शहीदी स्थल प्राप्त किया गया। फिरोजपुर शहर की कांग्रेस कमेटी ने पहली बार तीनों शहीदों की फोटो लगाकर श्रद्धांजलि देने की रस्म अदा की।
इस प्रकार अंग्रेजों ने शहीदों की तीन बार हत्या की। पहले फांसी पर लटकाकर, दूसरा गोलियों से उनका सीना छलनी करके, तीसरा उनके शवों के टुकड़े-टुकड़े करके। आमतौर पर हम विश्वास करते हैं कि महात्मा गांधी  इन नौजवानों की बहादुरी के प्रशंसक थे उन्होंने स्वयं यह कहा था कि वह किसी के भी मृत्यु दंड के खिलाफ है, परंतु उन्होंने यह भी कहा था कि सरकार को अपने अभियुक्तों को अपने नियमों के अनुसार फांसी देने का पूरा अधिकार है। गांधी ने कहा था किसी का जीवन लेने का अधिकार केवल ईश्वर को है, क्योंकि वही जीवन देता है। 
गांधी चाहते तो इन शहीदों की जान बचा सकते थे, आखिर उन्होंने लार्ड इरविन के साथ समझौता करके सत्याग्रह करने वाले 10 हजार राजनीतिक कैदियों को छुड़वाया था। ऐसा नहीं कि गांधी ने कोशिश नहीं की। 19 मार्च 1931 को गांधी स्वयं लार्ड इरविन से मिले और फांसी की सजा माफ करने की बात की। इसके पश्चात ठीक फांसी वाले दिन उन्होंने वाइसराय को एक पत्र भी लिखा मगर यह पत्र वायसराय की टेबल तक पहुंचता इससे पहले ही तीनों  शहीदों को फांसी के फंदे पर लटका दिया गया।
भारत में फांसी देने का काम सुबह-सुबह होता है, भारतीय कानून भी यही कहता है मगर प्रतिशोध का यह कुकृत्य फिरंगियों को करना ही था, और दिन में ऐसा करने से पूरी दुनिया को पता लग जाता। सांडर्स के परिवार को प्रसन्न करने के लिए रात में फांसी दी गई।
जब भगत सिंह और साथियों को जल्लाद लेने पहुंचे तो उस समय वह लेनिन की पुस्तक पढऩे में व्यस्त थे। पुस्तक के अंतिम पेज पढ़कर वे उठे और फांसी के फंदे पर पहुंचे तथा ऊंची ऊंची आवाज में इंकलाब जिंदाबाद के नारे लगाने लगे। शहीदे आजम भगत सिंह की बहन स्व. बीबी अमरकौर एवं परिवार के आठ सदस्यों ने 3 मार्च 1931 को लाहौर की सेंट्रल जेल में फांसी की काल कोठरी में अंतिम मुलाकात की थी। जहां भगत सिंह ने खुलकर हंसते हुए एक ऐसी राजनीति के सूत्रपात की भविष्यवाणी की थी जो आज सच बनकर लोगों के दिलों की आवाज समझी जाती है। भगत सिंह ने कहा था कि मां-मेरी मृत्यु के शीघ्र बाद ही तुम्हें आजादी मिल जाएगी परंतु मुझे लगता है कि यह खोखली आजादी होगी। गोरे अंग्रेज शासकों की जगह काले हिंदुस्तानी ले लेंगे। आजाद भारत की सरकार चलाने के लिए दो शताब्दी पुराना गुलाम भारत  का ब्रिटिश सरकारी ढांचा उसी तरह कायम रहेगा और बदला नहीं जाएगा।  नए शासक आजाद राष्ट्र की नई जरूरतों को समझ नहीं सकेंगे। गरीब जनता को कोई राहत नहीं मिलेगी। आज उनकी भविष्यवाणी सच साबित हो रही है।
पुस्तक में आगे लिखा गया है कि तीनों शहीदों का दाह संस्कार उनके रीति रिवाज से नहीं हुआ था। 27 मार्च 1931 को सिखों के धार्मिक नेता ज्ञानी शेर सिंह ने भी प्रेस रिलीज किया था कि उन्होंने सरकार द्वारा प्रकाशित उस विज्ञप्ति को पढ़ा है जिसमें कहा गया कि सरकार भगतसिंह के शव की अंत्येष्टि क्रिया सिख धर्मानुसार की गई है। यह सत्य से परे है, किसी ग्रंथी के साथ ऐसे चार अन्य सिखो के जो सिख धर्म की कड़ाई से मानने वाले हो, अंत्येष्टि करने का अधिकार है, अर्थी चार सिखों के कंधों पर होनी चाहिए। मृतक के शरीर पर पंचों कक्कार (सिखों के धार्मिक चिंह) मौजूद हैं या नहीं यह भी देखा जाना चाहिए। सुखदेव और राजगुरू की अस्थियां हरिद्वार में प्रवाहित नहीं की गई। (विभूति फीचर्स)

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