बिन तुम्हारे जी सकूं - भूपेन्द्र राघव
बिन तुम्हारे जी सकूं, अधिकार लेकर क्या करूँगा,
प्यार देकर क्या करूँगा, प्यार लेकर क्या करूँगा।।
हमसफ़र ही राह चलते,
हर कदम पर साथ छोड़े,
हाथ थामे था अभी तक,
वो अचानक हाथ छोड़े,
मांझी ही मझधार में जब,
नाव को ऐसे उतारे,
हों उफनते तेज धारे,
ओर ओझल हों किनारे,
डूबना ही तब उचित, पतवार लेकर क्या करूँगा।
सिक्त साँसों का हॄदय में, भार लेकर क्या करूँगा।।
बिन तुम्हारे …..……….......................................
रोम रोमों को अगर ,
मधुमास भी आकर जलाये,
खुशनुमा पुरवाई आकर,
देह पर नश्तर चलाये,
सोख ले होठों का पानी,
शुष्क हो सारी जवानी,
पुष्पदल हों रक्त रंजित,
कंटकों की मेहरबानी,
मौसमों का फिर कोई गुलजार लेकर क्या करूँगा।
क्या करूँगा पुष्प लेकर, खार लेकर क्या करूँगा।।
बिन तुम्हारे …..……….......................................
हर प्रणय के गीत में ही,
आंसुओं का आंकलन हो,
दूर मुस्कानों का पीछे,
छूटता सा गर चलन हो,
चाहतें कर मूक क्रंदन,
खुदकुशी करने लगीं हों,
कोर आखों की निरंतर,
अंश्रुजल भरने लगीं हों,
आद्र पलकों से झड़े अशआर लेकर क्या करूँगा।
रिक्त हाथों मैं कोई किरदार लेकर क्या करूँगा।
बिन तुम्हारे …..……….......................................
अश्क सावन की जगह लें,
मरमरी अंगों पे गर,
धूल आकर बैठ जाए,
मखमली रंगों पे गर,
हाथ आपस में बंधे हों,
थरथराते हों अधर,
बेरहम बन छीलती हो,
वक्त की तीखी नजर,
तप्त अंगारों सा यह श्रृंगार लेकर क्या करूँगा।
क्या करूँगा जीत लेकर, हार लेकर क्या करूँगा।।
बिन तुम्हारे …..……….......................................
दूर से ही खींच लें और,
भींच लें कसकर तुम्हें,
बाहुपाशों में छुपा लें,
चक्षु फिर हंसकर तुम्हें,
हों बड़ी उत्सुक मगर,
बाहें बहुत लाचार हों,
बस दिवास्वप्नों से ये,
नित टूटते संसार हों,
तब भुजाओं का निरा, विस्तार लेकर क्या करूँगा।
लट्टुओं सा मैं क्षणिक आधार लेकर क्या करूँगा।।
बिन तुम्हारे जीने का अधिकार लेकर क्या करूँगा।
प्यार देकर क्या करूँगा, प्यार लेकर क्या करूँगा।।
- भूपेन्द्र राघव, खुर्जा, उत्तर प्रदेश