चाहीं छांव - अनिरुद्ध कुमार

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हरकेहू के फरके चाव,

जेने देखीं दावे दाव।

केना चाहे होखे नाम,

रोजे नखड़ा चोना छाव।

देंखी सबके अलग स्वभाव,

रहनसहन के बड़ा प्रभाव।

बातचीत बोली व्यवहार,

भीतर बाहर झलके ताव।

अजबे गजबे लागे भाव,

माया काया बड़ीं लगाव।

बातचीत में झलके थाट,

हर बाते में बावे दाव।

कइसे पार लगी ई नाव,

जेने ताकीं लगे दुराव।

बेबात हरकोई उलझें,

कोई केंगा रोके पाँव।

छलनी छाती भीतर घाव,

भरोसा के बावे अभाव।

हरदम उलटा सीधा सोंच,

मुश्किल लागे रोकल पाँव।

हाहाकार शहर या गाँव,

लउके कहाँ कहीं ठहराव।

लहलह धूप जरे इ काया,

व्याकुलता के चाहीं छांव।

- अनिरुद्ध कुमार सिंह

धनबाद, झारखंड

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