मुजरिम हाजिर हो (कहानी) -  राजेंद्र सिंह गहलोत

 
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पिछले कुछ वर्षों से मेरी बड़ी विचित्र हालत है। दिन भर की व्यस्तता से थक कर जब मैं रात्रि में निद्रा के आगोश में जाना चाहता हूं तो आंख बंद करते ही अपने आप को एक ऐसी अदालत के कठघरे में खड़ा पाता हूं जहां पर कि मेरा ही प्रतिरूप मुझ पर आरोपों की बौछार करता है, फिर दूसरा प्रतिरूप उन आरोपों से बचाव करते हुये दलीलें प्रस्तुत कर मेरी वकालत करता है और इन सबसे अलग एक ऊंचे स्थान में शायद मेरा ही कोई प्रतिरूप आरोपों एवं दलीलों को बड़े गौर से सुनता है और अपना फैसला कभी मेरे पक्ष में तो कभी मेरे खिलाफ करता है। वह न्यायाधीश भी बड़ा गजब का है, जो मुझे कभी निर्दोष तो कभी अपराधी तो घोषित कर देता है पर दंड निर्धारण नहीं करता, लेकिन अक्सर अपराधी साबित होने पर वर्षों मानसिक यंत्रणा में गुजरते क्षण ही मेरा दंड है। आरोप लगाने वाला मेरा प्रतिरूप का वकील बड़ा घाघ है। वह चेतनावस्था में मेरी पूरी दिनचर्या पर चुपचाप अपनी पैनी निगाह गड़ाये लेखा-जोखा रखता जाता है और रात्रि होते ही मुकदमा तैयार कर मन की अदालत में ''मुजरिम हाजिर हो" की पुकार लगवाने लगता है।
अब उस दिन की घटना को लीजिये बात तो कोई विशेष नहीं थी। मेरा वह मित्र मुझे अपने घनिष्ठï मित्रों में से एक मानता है जबकि मैं मित्रों की जमात अपनी व्यवसायिक दृष्टि से बनाता हूं। यदि कोई व्यक्ति मुझे अपने व्यवसाय के दृष्टिकोण से उपयोगी प्रतीत होता है तो मैं पहले उससे घनिष्ठता का रूप मित्रता में परिवर्तित कर देता हूं। फायदा यह होता है कि मेरे व्यवसाय से संबंधित कार्य सुगमता से मित्रता की ओट में संपन्न होते रहते हैं। मेरा वह मित्र बैंक में है अत: व्यवसाय के दृष्टिकोण से उपयोगी है अत: बैंक संबंधी मेरे कार्य सुविधापूर्वक संपन्न हो जाते हैं, लेकिन जैसा कि मैंने पहले कहा मेरा वह मित्र मुझे अपने अंतरंग मित्रों में मानता है। अत: अक्सर अपने सुख-दु:ख में वह मुझे शामिल करने का प्रयास करता है चूंकि घनिष्ठता को बनाये रखना मेरे लिये आवश्यक है, अतएव यदा-कदा मैं अपने आपको उसका सुख-दु:ख का सहभागी साबित करने का प्रयास करता रहता हूं और इस क्रम में धीरे-धीरे उसके परिवार के सदस्य भी मुझे उसका अंतरंग मानने लग गये थे। शायद इसी का परिणाम है कि पिछले दिनों जब वह एकाएक भयानक उदर पीड़ा से पीडि़त हुआ तो उसके परिवार के सदस्य रात्रि में उसे हॉस्पिटल ले जाते वक्त मुझे भी अपने साथ ले जाना चाहते थे।  शायद उन्हें भरोसा था कि नगर के बड़े हॉस्पिटल में मेरी अच्छी जान-पहचान होने की वजह से मित्र की चिकित्सा में चिकित्सक अधिक ध्यान देंगे, लेकिन जब मैं रात को घर से बाहर अपनी आदत से मजबूर होने की वजह से जल्दी नहीं निकला तो वे पत्र में पूरा हाल लिखकर दरवाजे से नीचे खिसका कर छोड़ गये जिससे कि मैं शीघ्र हॉस्पिटल पहुंच जाता।
दिसंबर की कड़कड़ाती ठंड की रात्रि में जब बिस्तर छोड़कर मैं दरवाजे तक आया तब पत्र को पढऩे के बाद मेरे व्यवसायी मन ने निर्णय लिया कि अब तक तो वह हॉस्पिटल में दाखिल हो गया होगा। अब रात में इस भयंकर ठण्ड में बाहर क्यों निकला जाये? अत: सुबह जाने का फैसला लेकर पुन: सो गया। रात्रि में मन की अदालत ने कठघरे में खड़ा कर मेरी अच्छी खासी खबर प्रतिवादी वकील ने ली फिर भी सुबह उठकर सब काम निपटाकर सुविधा से ही हॉस्पिटल की ओर रवाना हो सका।
हॉस्पिटल में मित्र के पिताजी मिले उनकी आंखों में शिकायत के भाव साफ-साफ तैरते नजर आये, लेकिन मेरी व्यवसायी प्रवृत्ति का खोल इस मामले में अक्सर मुझे चिकना घड़ा बना देता है जिस पर कि ऐसी निगाहें कोई असर नहीं डाल पाती। मेरे पास उपलब्ध सटीक बहाने के स्टाक के दो तीन नमूनों ने ही उन्हें कायल कर दिया कि मैं किस भारी विवशता में फंसा था। जब मैं मित्र के पास पहुंचा और अपनी व्यवहारिक बुद्धि से मित्र को ढाढ़स बंधाने का प्रयास कर रहा था तभी नजर उठाकर उसकी पत्नी की ओर देखा तो उसकी आंखों में मेरे प्रति जाने कैसी उपेक्षा एवं मेरी दिखावटी सांत्वना की आत्मीयता प्रदर्शन के ढकोसले के प्रति विरोध के भाव नजर आये, जो कि साफ-साफ कह रहे थे कि- ''बस बस रहने दीजिये हमें मालूम है कि आप कितना अपने मित्र का ख्याल रखते हैं, कितनी सहानुभूति आपके दिल में उनके प्रति है।' और इस बार मेरी व्यवसायी एवं व्यवहारी प्रवृत्ति ने भी मेरा साथ छोड़ दिया और मैं कुछ भी तो न कह सका। जल्दी से फिर आने का वायदा कर हॉस्पिटल से बाहर निकल आया।
मित्र के हॉस्पिटल से स्वस्थ होकर घर पहुंचने के बाद भी उसे देखने जाने का साहस मैं न जुटा सका। दो तीन माह का समय व्यतीत हो गया। इस अंतराल में दो तीन बार पुन: वह उदर पीड़ा से पीडि़त हुआ। लगभग सभी परिचित उसे देखने गये, लेकिन जब भी मैं उसे देखने जाने का निर्णय लेता उसकी पत्नी की आंखों में तैरते वे भाव जो हॉस्पिटल में मैंने देखे थे मुझे भी रूला देते। मेरी हिम्मत जवाब देने लगती। मैं पुन: उन आंखों में तैरते भावों को झेलने का साहस न उठा पाता, लेकिन जब सभी परिचित इस बावत मेरी आलोचना करने लगे तो आखिर हिम्मत जुटाकर मैं अपने उस मित्र के घर जा ही पहुंचा।
दरवाजा खटखटाने पर उसकी पत्नी ने ही दरवाजा खोला, यह मैं पहले ही तय करके आया था उसकी पत्नी की ओर नजर उठाकर देखूंगा ही नहीं... खासतौर से आंखों की ओर तो बिल्कुल ही न देखूंगा। अत: नजर झुकाये मित्र के पास पहुंचा। मित्र काफी अंतरंगता से मिला। मैंने व्यस्तता का राग अलापने के बाद उसकी बीमारी का हाल पूछा।
उसने बताया कि बस परहेज चल रहा है जो कि लम्बी अवधि तक चलेगा। घी, तेल, मिर्च, मसाले, सभी का परित्याग कर देना पड़ा है मात्र दाल-रोटी, खिचड़ी जैसे हल्के भोजन पर निर्भर रहना पड़ रहा है। थोड़ा रूककर पत्नी की ओर प्रेम से निहारते हुये वह बोला 'मेरी बीमारी में इसने भी परहेज करना शुरू कर दिया है, यह भी दाल-रोटी और खिचड़ी खाकर ही काम चला रही है। फिर ऑफिस, साहित्य आदि की पटरियों पर वार्ता की गाड़ी दौड़ती रही। इस बीच उसने पत्नी से मेरे मना करने पर भी मेरे लिये चाय बनाने के लिये कहा। कुछ देर बाद उसकी पत्नी एक बड़ी ट्रे में चाय, मिष्ठान एवं गर्मा-गर्म पकौड़ी लेकर आ गई। इतने खाद्य पदार्थ एक ऐसे बीमार के घर से जिसे कि परहेज में सब मना हो अपने सामने परोसे जाने और उसे खाने में बड़ी संकोच की स्थिति में मैं अपने को पा रहा था। तभी उसकी पत्नी ने मुस्कुराते हुये कहा- 'खाइये भाई साहब। आपके लिये विशेष तौर पर बनाया है।'
मैंने सकपका कर उसकी ओर ताका तो चेहरे पर उपहास और आंखों में वही उपेक्षा एवं तिरस्कार का भाव नजर आया जो कि मुझसे कह रहा था कि 'पाखंडी मित्र तुम बेशर्मी से तर माल उड़ाओ तुम्हें हम लोगों की तकलीफ से क्या?' मुझे लगा कि ट्रे पर सजे पकवान मेरी मित्रता के पाखंड की हंसी उड़ा रहे हैं।
ट्रे पर भाप उड़ाते चाय के प्याले में मेरे बनावटीपन की व्यवहारिकता का प्रतिबिम्ब झलक रहा है। किसी तरह चाय नाश्ते की औपचारिकता पूरी कर लडख़ड़ाते कदम से मैं मित्र के घर से बाहर निकला लेकिन मित्र की पत्नी की आंखों में झलकते तिरस्कार एवं उपहास का भाव निरंतर मेरा पीछा कर रहे थे। तभी एकाएक इस बार दिन में ही मेरे अंतर्मन की अदालत से मेरे प्रतिरूप के विपक्षी वकील की तीखी आवाज़ गूंजने लगी- ''मुजरिम हाजिर हो।" (विभूति फीचर्स)

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