दिसम्बर - विनोद निराश
जाने क्यूँ आज-कल खुद को,
अब उम्रदराज़ सा महसूस करने लगा हूँ,
कच्चे धागे से बंधी इस उम्र की डोर से,
चाहतों के कुछ मोती से झड़ने लगे है।
तारीख-दर-तारीख अब तो मेरी उम्र भी,
आहिस्ता-आहिस्ता कम सी होती जा रही है,
दिले-जज्बात आज-कल सिमट से रहे है ,
और ज़िम्मेदारियो के बोझ बढ़ने लगे है।
मेरी उम्र की तरह जा रहा है ये दिसम्बर,
ज़िंदगी की सीढ़ियों से हौले-हौले उतर रहा है,
गए वक्त की तरह न अब ये लौटेगा,
और रुआब अब जनवरी के चढ़ने लगे है।
जाते साल का ये दिसम्बर और,
आते साल की जनवरी में फर्क है इतना ,
कि दिसंबर मेरी तरह बुढ़ा हो चला,
और जनवरी की जवानी के पाँव उखड़ने लगे है।
बस जनवरी और दिसम्बर के दरम्यां,
फांसला इतना जितना चंद साँसों के बीच,
बीते वक़्त में इक चेहरा घटा था निराश मगर,
इस साल आंगन में फूल खिलने लगे है।
- विनोद निराश, देहरादून