इक आस ज़रूरी रही सदा - यशोदा नैलवाल

 
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सब कुछ पाया जीवन में पर इक चाह अधूरी रही सदा।
तुम  ही इस मन के  साथी  थे तुम  से ही दूरी रही सदा। 
कितनी राहों पर साथ चले 
पर मंज़िल का बंटवारा था,
था भाग्य किसी बादल जैसा 
उजला था पर आवारा था,
मौसम-मौसम कितनी भटकन का ज्वार सहा मन का हिरना,
हर क़दम- क़दम पर उसकी ही छलती   कस्तूरी रही सदा।
जीवन की तुम्हीं कमाई बस 
सब कुछ का एक जतन थे तुम, 
इन  प्राणों का  आभूषण थे 
ज्यों हीरा  हार  रतन थे तुम,
मैंने  जो  गीत  लिखे - गाए  उनमें  स्पंदन   तुमसे  था, 
पर नाम तुम्हारा गा न सके लब की मजबूरी रही सदा।
कितनी तड़पन कितनी उलझन
कितने आंसू के मारे हैं,
बस एक तुम्हीं पर आंखों के
हम सात समंदर हारे हैं,
अपने हिस्से  बस इतना  ही  पीड़ा की  चौखट  प्रेम जिया,
फिर भी सपनों की दुनिया में इक आस ज़रूरी रही सदा।
- यशोदा नैलवाल, पिथौरागढ़, उत्तराखंड 

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