चुनाव - प्रदीप सहारे

 
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सुबह सुबह,
मेरा दोस्त रामभाया ।
मेरे घर आया ।
आकर आंगन में,
मुंडेर पर बैठा ।
थोडा सा  ऐंठा ।
फिर मुंह खोला,
और धीरे से बोला ।
" भाई चुनाव याने क्या ? "
प्रश्न सुनकर,
मैं भी थोड़ा चौका ।
लेकिन,
ज्ञान बघारने का देख मौका ,
मार दिया फिर,
ज्ञान का चौका ।
बोला भाई,
" चुनाव है ,
एक एक शब्द की,
भटकी हुई नाव ।
छोटे, बडे लगाते यहां,
अपना अपना दाँव।
दाँव में होते सब शब्दों के भाव ।
एक एक नये शब्द ज़ुबा पर आते ।
शर्म, हया , नफ़रत सब जगह पाते ।
दाँव में चलता जोरो पर,
सबका सफेद  झूठ ,
सफेद झूठ के चक्कर में,
अपने जाते छूट ।
ना सही बात ,
ना बात में विकास ।
तेरी, मेरी, मेरी - तेरी ,
जात बिरादरी,
यही सब बकवास ।
इस बकवास में,
जो मुद्दे होते हैं खास ।
वह हो जाते बायपास ।
इतना सब कहते,
लग गई प्यास ।
ग्लास भर पानी पीया।
शांत हुवा हीया । "
मेरी बात सुन,
रामभाया हुवा शांत ।
शान्ति के साथ ,
पास हुआ खड़ा ।
हाथ में लिया ,
सम्हालते हुये,
पायजामे का नाड़ा ।
एक ही दम , बोल पड़ा ।
भाई ..
लोकसभा का चुनाव हैं !!
हो जाता हूं खड़ा ।
- प्रदीप सहारे, नागपुर , महारष्ट्र

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