फाल्गुन - मुकेश कुमार दुबे

 
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फाल्गुन वर्ष का अंतिम महीना
मौसम है होता बड़ा सुहावना।
बसंत ऋतु काल हाल है होता,
हरियाली चारों ओर है होता।
पेड़-पौधों पर आती नई कोंपल,
आम्र वृक्षों लगते हैं बौर।
कोयल बागों में है आती,
कुहूं-कुहूं कर गीत सुनाती।
खेतों में पौधे पर फूल है खिले,
अलसी के नीले सरसों के पीले।
नए-नए पौधे चारों ओर उगते,
मानो धरती ने ओढे हरियाली की चादरें।
महाशिवरात्रि का पर्व आता पावन,
शिव-पार्वती के विवाह का दिन पावन।
करते व्रत सब महाशिवरात्रि का,
पूजा करके पार्वती और शिव का।
भोलेनाथ वरदान है देते,
भक्तों की इच्छा पूरी करते।
मदनोत्सव का महीना है फाल्गुन,
वसंतोत्सव, मदनोत्सव मनाते सब जन।
प्रेमांकुर फूटते चहूं ओर,
तरुण-तरुणी दिखते हर ओर।
चोरी छुपे परिमालाप करते,
पर अपने अभिभावक से डरते।
नवयौवनाएं मन में हिलोरें लेती,
प्रेमी के संग मस्ती करती।
रंगोत्सव त्यौहार मनाते,
होली में सब अच्छा लगते।
बिरही सजनी रो भी नहीं पाती,
सजना की हमेशा याद सताती।
नौ माह हुए उसके पूरे,
बिरही ने सुंदर बालक जने।
सखिया सब मिल खुशी मनाती,
पर विरही को कुछ ठीक नहीं लगती।
साजन के बिना सब सूना-सूना है,
उसके बिन सुखचैन कहां है।
सखियां बार-बार समझाती,
सुंदर पुत्र का मुख दिखलाती।
पर सजनी सिर्फ रोती-गाती,
पिया-पिया रात दिन पुकार की।
प्रभु ने उसके पुकार सुन लिए,
पति को सपने में दर्शन है दिए।
दिखाया पत्नी का उदास चेहरा,
सुंदर सलोना पुत्र का मुखड़ा।
प्रभु बोले, 'अपने घर जाओ',
पत्नी का अपने दुख मिटाओ।
अगले दिन पति घर आए,
घर में सारी खुशियां लाए।
सजनिया फूली नहीं समाती,
हंसी-खुशी के गीत है गाती।
उसके घर भी आया रौनक,
खुशी से सब ने मनाया रंगोत्सव।
- मुकेश कुमार दुबे "दुर्लभ"
(शिक्षक सह साहित्यकार), सिवान, बिहार

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