रूप घनाक्षरी - मधु शुक्ला

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कंठ के कमाल से ही, कवि जीत लेते मंच,

आजकल बात यह, कहने लगे हैं लोग।

जन की प्रवृत्ति अब, दोष ढूँढ़ने की हुई,

सृजन नकारने का, बढ़ने लगा है रोग ।

परहित हेतु नहीं, श्रम कोई कर रहा,

प्रिय अब सबको ही, लगने लगा है भोग।

मानना न हार कभी, थाम के कलम हाथ,

देना नहीं लेखनी को, भूलकर भी वियोग।

-  मधु शुक्ला, सतना, मध्यप्रदेश

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