गेम - जया भराडे बडोदकर
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utkarshexpress.com - कभी कभी बच्चे बडो़ की तरह भी गेम खेलते है हमने भी बचपन में बहुत सुन्दर। मस्त गेम खेले हैं। फुटबॉल वालीबॉल, खो-खो, बेडमिटन, टेबल टेनिस सभी गेम स्कूल में खेलते थे। फिर भी मुझे टेबल टेनिस में जरा जादा ही दिलचस्पी धी। अब तो बच्चे कंप्यूटर पर न जाने कितने विडियो गेम खेलते रहते हैं। पर वो थकान वो मजा वो पसीना कहाँ बहाने को मिलता है। ओर तो ओर अक्सर अकेले ही सारा दिन बिता देते हैं।
खाने की भी सारी आदतें बदल चुकी है। ओन लाईन चाहे जो घर बैठे ही म़गा लिया जाता हैं,। श्आरीरिक हाल चाल लगभग सभी बंद हो चुकी है। ओर एक गुगल का साथ भी ऐसा मिल गया है कि अब किसी दूसरे की कोई जरूरत ही महसूस नहीं होती है। भरा पूरा परिवार एकांत वास में बदल गया है। सभी कमाने के लिए घर से बाहर निकल पंडे है। घर की खोज खबर लेने वाले सभी लोग मोबाइल फोन में वयस्त हो गयै है। सभी लोगो को अपने आस पास कोई दखल मंजूर नही।
सुबह से शाम तक बस एक की ही जरूरत है और वह सिर्फ एक मोबाइल फोन की।
इस तरह सुखी जीवन का कत्ल मोबाइल फोन सरेआम कर रहा है,
कौन किसे समझाये ?
यहाँ हर कोई फोन पर बरबाद हो चुका है।
-जया भराडे बडोदकर,टाटा सेरीन,ठाने,, वेस्ट मुम्बई, महाराष्ट्र