गीतिका - मधु शुक्ला

 
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एकता, सद्भावना की दुर्दशा पर रो दिए,
धर्म के हाथों विभाजित जब हुआ घर रो दिए।

प्रेम से विश्वास की जिनको थमाई डोर थी,
वे दिए जब मुस्कराकर भेंट ठोकर रो दिए।

जन्म देकर भी हमारी हो न पाई कल्पना,
अतिक्रमण के खेल में हारे सृजन स्वर रो दिए।

सत्य के आशीष से ही न्याय पाया नाम यश,
नेत्र में हम न्याय के लख आज निर्झर रो दिए।

नीर गंगा को नमन करते खुशी से आप हम,
पर प्रदूषित देखकर हम यह धरोहर रो दिए।

आंग्ल भाषा के लिए अनुराग जन में बढ़ रहा,
देख हिन्दी की दशा साहित्य सागर रो दिए।

बात जनहित की सदा करते रहे नेता सभी,
आज उनका देखकर व्यवहार बिषधर रो दिए।
---- मधु शुक्ला, सतना, मध्यप्रदेश
 

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