गीतिका - मधु शुक्ला

 
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वक्त था कीमती तो बचाना पड़ा,
हाथ रिश्वत खिलाकर छुड़ाना पड़ा।

दान देकर जहाँ दाखिला हो वहीं,
मन न माना मगर सुत पढ़ाना पड़ा।

चाहिए था धनी योग्य दामाद तो,
स्वर्ण कालीन पथ में बिछाना पड़ा।

नित्य ही बढ़ रहे मूल्य हर वस्तु के,
धन इसी हेतु काला कमाना पड़ा।

रोग घातक, बहिष्कृत बनी सादगी,
कार बंगला तभी तो जुटाना पड़ा।

जेब खाली गँवाये न रिश्ते कहीं,
इसलिए नित्य उपहार लाना पड़ा।

है अमानत समय की मनुज जिंदगी,
जो दिया वक्त उस से निभाना पड़ा।
-- मधु शुक्ला, सतना, मध्यप्रदेश
 

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