ग़ज़ल (हिंदी) - जसवीर सिंह हलधर
![pic](https://utkarshexpress.com/static/c1e/client/84522/uploaded/402ea40779c03de6aacc5e1128f3cde0.jpg)
दीप की लौ है अधूरी तम उसे भरमा रहा है,
सूर्य के हस्ताक्षरों पर धुंध कुहरा छा रहा है।
हर सुबह तेजाब डूबी रक्त रंजित शाम देखो ,
बागबां देखो चमन से अधखिले गुल खा रहा है।
मौत के आलेख अंकित हो रहे पूरे जहां में ,
सुर्ख हैं अखबार सारे कौन लिखकर ला रहा है।
देवता मूर्छित हुए अब मूक हैं सब प्रर्थनाएँ ,
शोकपत्रों पर विजय के कौन गाने गा रहा है।
किस समय में जी रहे हम कौन है इसका रचियता ,
कौन है जो शांति के प्रस्ताव को ठुकरा रहा है।
लोग अंधे हो रहे हैं मज़हबी चश्मा पहनकर ,
मस्जिदों में कौन है जो कौम को भटका रहा है।
ढेर पर बारूद के दुनिया दिखाई दे रही है ,
कौन है जो विश्व को यू एन से फुसला रहा है।
नागरिक समता हमारे राष्ट्र का आधार है तो ,
कौन इसकी राह में रोड़े यहाँ अटका रहा है।
नागरिक कानून को जो तूल इतनी दे रहा है ,
घाव पर मरहम उसे "हलधर"नहीं क्यों भा रहा है।
- जसवीर सिंह हलधर, देहरादून