ग़ज़ल (चित्राधारित) - विनोद निराश

 
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इक दिन वक़्त की भीड़ में रल जाएगा,
जवानी का तेरी जब सूरज ढल जाएगा। 

याद आयेगा तुम्हे भी वो गुजरा ज़माना,
जब हाथ पे रख हाथ कोई मल जाएगा।

क्यूँ दे रहे फरेब किसी को तुम दानिस्तां, 
तुम्हे भी कभी कोई न कोई छल जाएगा। 

मैंने तो तुम्हे ही फकत अपना माना था, 
क्या पता था तू इक दिन बदल जाएगा। 

मत किया कर गुमां इतना हुस्न पे अपने, 
ये रुआबो-हुस्नो-जवानी सब ढल जाएगा। 

आखिर किस बात का है गुमां जाने-वफ़ा,  
मिटटी का जिस्म मिटटी में गल जाएगा। 

नसीब बुरा नहीं है मेरा याद रखना मगर,
वक़्त बुरा है निराश वो भी टल जाएगा। 
- विनोद निराश , देहरादून 

फरेब - धोखा / झूठ 
दानिस्तां - जानबुझ कर 
फकत - केवल 
रुआबो-हुस्नो-जवानी - जवानी के रूप का रौब / सौन्दर्य की पराकाष्ठा
 

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